श्री धर्मराज व्रत| Dharmraj Vrat

सुर्य भगवान के उत्तरायण में जाते हीं जो महा पुण्यवती मकर-संक्रांति आती है, उस दिन से धर्मराज का व्रत शुरु किया जाता है । सभी संक्रांति को यह व्रत किया जाता है । इस प्रकार पूरे वर्ष-भर मेरी कथा सुने और पूजा करे, इसमें कभी नागा नहीं हो। जिस घर में स्त्री या पुरुष इस धर्मराज की कथा को श्रद्धा पूर्वक प्रतिदिन पढ़ते हैं वे दु:खों से मुक्त हो जाते हैं। इसमें कुछ भी संशय की बात नहीं है। धर्मराज की कथा सुनने वाले को यमलोक के मार्ग में भी कोई कष्ट नहीं होता। उन्हें शीघ्र हीं स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त होता है।

श्री धर्मराज व्रत कथा

एक समय की बात है कि नैमिषारण्य में सहस्त्रों शौनकादि ऋषि-गण परम श्रद्धा के साथ पुराणों के मर्मज्ञ सूतजी महाराज से कहने लगे- भगवन! हम आपसे धर्मराज की कथा,उसका विधान तथा महात्म्य सुनना चाहते हैं। सो कृपा करके यह सुनाइए।
सूतजी बोले- हे ऋषियों! आप लोगों ने मनुष्य के कल्याण की कामना से यह पूछा है। अत: आज मैं आप लोगों को धर्मराज की कथा सुनाता हूँ। सारे तीर्थ तथा व्रत करने से तथा नाना प्रकार का दान देनेवाला मनुष्य भी जिनकी उपासना के बिना सुख के भागी नहीं हो सकते। इस विषय में एक कथा सुनाता हूँ। आप लोग ध्यान से सुनें।
पूर्वकाल की बात है, राजा बभ्रुवाहन महोदयपुर में राज्य करता था। वह बड़ा दयालु, धार्मिक तथा गौ,ब्राह्मण और अतिथियों का पूजक था। उसके राज्य में हरिदास नाम का एक महा विद्वान ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी भी बड़ी धर्मवती और सुशील थी। उसका नाम गुणवती था। दोनों पति-पत्नी भगवान विष्णु के सेवक थे। उन्होंने सभी प्रकार के व्रत किये , किंतु धर्मराज नाम से भगवान की कभी सेवा नहीं की।
बड़ी श्रद्धा के साथ वे गणेश जी की,चंद्रमा की, हरतालिका व्रत की, एकादशी आदि सभी व्रतों का पालन करते एवं अतिथि सत्कार भी करते थे। इस प्रकार धर्मपरायण ब्राह्मण दम्पत्ति वृद्धावस्था को प्राप्त हुये।
एक दिन गुणवती मृत्यु को प्राप्त हुई। धर्माचरण के प्रभाव से उसको यमदूत आदरपूर्वक यमलोक को ले गये। दक्षिण दिशा में पृथ्वी से ऊपर धर्मराज का बहुत बड़ा लोक है, जो कि पापियों के लिये भयावह है।
धर्मराज का लोक चौकोर है और उसमें चार द्वार हैं। उस पुर के बीचो-बीच धर्मराज का सिंहासन है। उस रत्न जड़ित सिंहासन पर भगवान धर्मराज विराजमान रहते है। पास में ही चित्रगुप्त जी अपने स्थान पर बैठते हैं और सब के कर्मों का हिसाब करते हैं। यमदूत गुणवती को लेकर वहाँ पहुँचे।
चित्रगुप्तजी ने उसके कर्मों का हिसाब किया; उसके धर्माचरण और पतिव्रत धर्म का लेखा देखकर बहुत प्रसन्न हुये, परन्तु कुछ उदासी के साथ उसके कर्मों को धर्मराज को सुनाया। गुणवती के कर्मों को सुनकर धर्मराज जी थोड़े परेशान हो गये,
यह देखकर गुणवती ने कहा- प्रभो! मैंने अपनी समझ के अनुसार जीवन में कोई दुष्कर्म नहीं किया है; फिर आप अपनी उदासी का कारण बताने की कृपा करें।
धर्मराज ने कहा- हे देवी! तुमने व्रत आदि से सभी देवों को संतुष्ट किया है, लेकिन मेरे नाम से कोई भी दान-पुण्य नहीं किया है।
यह सुनकर गुणवती ने कहा-हे धर्मराज! मेरा अपराध क्षमा करें। । मैं आपकी उपासना नहीं जानती थी। अब कृपा करके इसका उपाय बताइये, जिससे मनुष्य आपके कृपा पात्र बन सके। यदि मैं आपके मुख से आपके भक्ति मार्ग को सुनकर मृत्यु-लोक में वापस जा सकूँगी, तो आपको संतुष्ट करने का प्रयास करूँगी।
धर्मराज ने कहा- सुर्य भगवान के उत्तरायण में जाते हीं जो महा पुण्यवती मकर-संक्रांति आती है, उस दिन से मेरी पूजा शुरु करनी चाहिए। इस प्रकार पूरे वर्ष-भर मेरी कथा सुने और पूजा करे, इसमें कभी नागा नहीं हो। आपतकाल आने पर भी मेरे धर्म के इन दश अंगों का पालन करे।
धृति यथा लाभ-संतोष। क्षमा यम नियम द्वारा मन को वश में करना,किसी की वस्तु को नहीं चुराना, मन से परस्त्रियों या पर –पुरुषों से बचना यानी मन शुद्धि और शारीरिक शुद्धि, इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धिकी पवित्रता यानी मन में बुरे विचार न आने देना, शास्त्र विद्या का स्वाध्याय यानी पूजा-पाठ, कथा-श्रवण या व्रत रखना और तदनुसार दान-पुण्य करना, सत्य बोलना, सत्यता का व्यवहार करना, क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं और मेरी कथा को नियम से सुनता या सुनाता रहे।
यथाशक्ति दान-पुण्य और परोपकार के कार्य करता रहे। वर्ष भर बाद जब मकर-संक्राति आवे तो इस व्रत का उद्यापन कर दे। यथाशक्ति सोने अथवा चाँदी की मूर्ति बनबावकर ब्राह्मणों के द्वारा विधि विधान से प्राण-प्रतिष्ठा कर षोडशोपचार से पूजा एवं हवन करे। मेरे साथ चित्रगुप्तजी की भी पूजा करे। काले तिल के लड्डुओं का भोग लगाये।
ब्राह्मणों को भोजन करायें। बाँस की टोकरी में पाँच सेर धान या ज्वार रखकर ब्राह्मणों को दान में दे। स्वर्ग प्राप्ति के लिये स्वर्ण का भी दान करें। इसके अलावा शय्या, गद्दा, तकिया,रजाई, कम्बल,पादुकाएँ,बाँस की लकड़ी,लोटा,डोर,पाँच वस्त्र, पाँच कपड़े भी दान देने चाहिये। यदि सामर्थ्य हो तो मेरे निमित्त श्वेत या लाल और चित्रगुप्तजी के निमित्त काली गाय दान दें।
धर्मराज की बातें सुनकर गुणवती ने विनती की- हे प्रभो! मुझे फिर से मृत्यु-लोक में जाने दें, जिससे मैं आपके व्रत को करूँ और इस व्रत का प्रसार भी लोगों के बीच कर सकूँ। धर्मराज जी ने इसके लिये सहमति दे दी।
सहमति देते हीं गुणवती के शरीर में जान आ गई। उसके पुत्रादि बड़े प्रसन्न हुये। उसने सभी बातें अपनी पति को बताई।
मकर संक्राति आते हीं दोनों ब्राह्मण दम्पति ने धर्मराज के निमित्त व्रत शुरु किया। एक वर्ष के बाद इस व्रत का उद्यापन किया। इस व्रत के प्रभाव से उसे स्वर्ग की प्राप्ति हुई।
सूतजी ने शौनकदि ऋषियों से कहा- हे ऋषियों! जिस घर में स्त्री या पुरुष इस धर्मराज की कथा को श्रद्धा पूर्वक प्रतिदिन पढ़ते हैं वे दु:खों से मुक्त हो जाते हैं। इसमें कुछ भी संशय की बात नहीं है। धर्मराज की कथा सुनने वाले को यमलोक के मार्ग में भी कोई कष्ट नहीं होता। उन्हें शीघ्र हीं स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त होता है।

॥ इति श्री धर्मराज व्रत कथा॥