दशा माता / दशारानी पहली कथा (Page 7/10)

राजा ने चाक के पास जा कर देखा, तो कंकड़- पत्थर के सिवा और कुछ भी नहीं था । राजा समझ गया कि यह सब कुदशा का कारण है । यह सम्भव नहीं कि जिस बहन को मैंने अन्धकूप में से निकाला; सब कुछ दिया, वह मेरे लिये कंकड़-पत्थर लाये । उसके बाद वे लोग वहाँ से भी चलकर एक मित्र के घर गये । मित्र ने सुना कि मित्र आये हैं , तो उसने भी पूछा- “कैसे आये ? ” लोगों ने कहा- “कमरी ओढ़ें कथरी बिछावें, माँग-माँगकर खावे। ऐसे आये और कैसे आये !” मित्र ने ऊर्ध्व श्वास लेकर कहा- “कोई हानि नहीं । जैसे आये, वैसे अच्छे आये, आखिर मित्र हैं । उनको महल में लिवा लाओ।” राजा- रानी दोनों मित्र के महल में ठहर गये । मित्र ने बड़े आदर-भाव से उनका स्वागत किया, भोजन कराया और एक कमरे में उनके सोने के लिये पलंग बिछवा दिये । उस कमरे में खूँटी पर नौलखा हार टँगा था और पलंग की पाटी पर बिजुरिया खाँड़ा रक्खा था । आधी रात के समय राजा सो गये थे। रानी उनके पैर दबा रही थी । उसने देखा कि हारवाली खूँटी के पास दीवार में एक मोर का चित्र बना है। वह हार को धीरे-धीरे निगल रहा है और खाँड़ा पलंग की पाटी में समाता जाता है । रानी ने राजा को जगाकर दिखलाया। तब राजा ने कहा- “ यहाँ से भी चुपचाप भाग चलना चाहिये, नहीं तो सवेरे चोरी का कलंक लगेगा । तब मित्र को क्या मुँह दिखावेंगे ? ” यह सोचकर राजा-रानी रात को ही मित्र के महल से चल पड़े।
वे दोनों चलते-चलते एक अन्य राज्य की राजधानी में पहुँचे । वहाँ अतिथि और भिक्षुओं को सदाव्रत दिया जाता था । राजा- रानी भी सदाव्रत लेने गये । उस समय सदाव्रत बंद हो चुका था। वहाँ के अधिकारियों ने कहा- “ यह लोग न जाने कहाँ के अभागे आये हैं, कि इनकी बार को कुछ भी नहीं बचा है। खैर , फिर भी मुट्ठी- मुट्ठी चने दे दो।” इस प्रकार अनादर और कुवाच्य सहित दाना लेना अस्वीकार करते हुए राजा-रानी वहाँ के दानाध्यक्ष की निन्दा करते हुए बोले- “ ऐसा कंजूसपन है, तब सदाव्रत देने का नाम क्यों करते हैं ? ” इस पर दानाध्यक्ष ने कहा- “ये भिक्षुक बड़े घमण्डी मालूम होते हैं । भीख माँगते है और गालियाँ भी देते हैं। इनको हवालात में बन्द कर दो ।” इस तरह राजा-रानी दोनों एक कोठरी में बंद कर दिये गये । मुट्ठी-मुट्ठी चने दोनों को खाने के लिये मिलने लगे। जिस कोठरी में राजा- रानी कैद थे, उसी के सामने से आम रास्ता था । एक मेहतरानी राजा की घुड़साल को पारकर उसी रास्ते से निकला करती थी । एक दिन वह बहुत देर से निकली । तब रानी ने उससे पूछा- “ आज तुमने इतनी देर कहाँ लगाई ? ” वह बोली- “ आज राजा को घोड़ी ब्याई थी । उसी की टहल में ज्यादा देर हो गई । ” रानी ने पूछा- “ घोड़ी पहली बार ब्याई है या दूसरी बार ? ” मेहतरानी बोली- “ पहली बार ।” फिर रानी ने पूछा- “बछेड़ा हुआ या बछेड़ी ?” उसने जवाब दिया- “ बछेड़ा हुआ है और अच्छी साइत (मुहुर्त) में हुआ है ।” तब रानी ने राजा से कहा- “एक बार मैंने तुम्हारी मुँहबोली बहन के गण्डे का अनादर किया था । उसी दिन से अपनी दशा बदल गई है , इसलिये आज मैं दशारानी का गंडा लेती हूँ ।” राजा ने कहा- “सो तो ठीक है ;