दशा माता / दशारानी पहली कथा (Page 6/10)

तब राजा ने रानी से कहा- “रानी ! जहाँ राज किया, वहाँ इस दशा में नहीं रहा जाता । इसलिये यहाँ से कहीं और चलना उचित है ।” रानी पतिव्रता स्त्री थी । उसने राजा की आज्ञा सिर पर रखकर उसकी विपत्ति में साथ देना सहर्ष स्वीकार कर किया। राजा- रानी दोनों महलों से निकलकर चल दिये । वे चलते-चलते एक गाँव के पास पहुँचे । वहाँ बेर के वृक्षों में अच्छे- अच्छे बेर लगे हुए थे । राजा- रानी दोनों भूखे थे । इसलिये वे बेरों के नीचे जाकर बेर बीनने लगे कि आज इन्हीं को खाकर दिन काटेंगे, परन्तु जितने बेर राजा-रानी ने एकत्रित किये वे बेर लोहे के हो गये । राजा-रानी बेरों को उसी जगह फेंककर आगे बढ़े, तो किसान खेत काट रहे थे । राजा ने उन लोगों से कहा- “ यदि आज्ञा दो, तो हम भी तुम्हारे साथ खेत काटें ।” उन्होंने जवाब दिया- “तुम लोग क्या काटोगे ; दो मुट्ठी बालें ले लो और भूनते-खाते अपने रास्ते चले जाओ । ” राजा ने बालें ले लीं । उनको भूनकर तैयार किया तो उनमें से अन्न के दानों के बजाय कंकड झड़ने लगे । और आगे चले तो एक कहार तरबूजे बेच रहा था । उसने एक तरबूज राजा को दिया । वह राजा के हाथ में आते हीं काठ का हो गया। और भी आगे चले तो एक जगह सुरा गाय राह चलते यात्रियों को इच्छानुसार दूध देती थी । राजा ने जाकर गाय से दूध माँगा,तो गऊ ने चाँदी का पात्र भर दिया।
परन्तु रानी के हाथ में पात्र जाते ही वह काठ का हो गया और उसमें का दूध रक्त हो गया । राजा-रानी गऊ के पैर पकड़कर आगे चले । उधर से एक बनिया व्यापार करके चला आता था । उसने राजा नल को पहचान लिया । तब उसने राजा-रानी के भोजन भर को सेर-भर आटा नजर किया । वे लोग उस आटे को लेकर एक नदी के किनारे गये । वहाँ रानी भोजन बनाने लगी और राजा स्नान करने लगा। उस नदी में मछुआरे मछलियाँ पकड़ रहे थे । उन लोगों ने राजा को चार मछलियाँ भेंट की । रानी ने रोटियाँ सेंककर और मछली भूनकर रक्खी, तब तक राजा आये । रानी ने परोसने को हाथ बढ़ाया तो देखती है कि रोटियाँ ईंटे हो गई और मछलियाँ उछलकर नदी में चली गई । राजा ने रानी को लज्जित देखकर और रोटियों की जगह ईंटे रक्खी देखकर पूछा- “क्या हुआ, कहती क्यों नहीं ?” रानी बोली – “मैं अधिक भूखी थी, इस कारण मैंने जो भोजन बनाया था , वह मैंने ही खा लिया है; आप के लिये कुछ नहीं बचा ।” राजा बोले-“ यह तो सम्भव नहीं कि तुम मुझ से पहले भोजन कर लो, किन्तु अब मै यही बातें मान लेता हूँ, जो तुमने कही है । ” वहाँ से चलकर वे अपनी मुँहबोली बहन के यहाँ गये । बहन ने सुना कि उसक भाई-भौजाई आये हैं । उसने पूछा- “कैसे आये ? ” औरतों ने कहा – “लटके चीथड़ा, भूकें कूकरा । ऐसे आये और कैसे आये ? ” यह सुनकर उसे बड़ी शर्म लगी । वह बोली ‌ - “होंगे कोई नाते-गोते के, उनका डेरा कुम्हार के यहाँ दे दो । ” दिन भर व्यतीत हो गया । शाम को थाल सजाकर बहन खुद भावज से मिलने कुम्हार के घर गई । उसने सामने थाल रक्खा तो भावज बोली- “इस थाल में जो कुछ भी हो, कुम्हार के चाक के नीचे रख दो और चली जाओ ।” वह थाल का सामान चाक के नीचे रख कर चली गई । थोड़ी देर में राजा ने आकर रानी से पूछा-“कहो, बहन आई थी, कुछ लाई थी ? ” रानी ने कहा- “आई तो थी, पर जो कुछ लाई थी, मैंने इसी चाक के नीचे रखवा दिया है । ”