दशा माता / दशारानी पहली कथा (Page 5/10)

वह घूमता-फिरता राजा नल की राजधानी में जा पहुँचा। वहाँ वह हाट-बाजर में कुँओं के पनघट पर घूमता हुआ अपनी स्त्री का पता लगाने लगा । एक कुँए पर उसने औरतों को बातें करते सुना । एक बोली-“ राजा हाल में मुँहबोली बहन लाये हैं । बड़ी ही सुन्दर स्त्री है । आजकल उसी का किया हुआ सब कुछ होता है ।” दूसरी बोली- “वह जैसी सुन्दर है, वैसी ही धर्मात्मा भी है । जब से आई है, तभी से उसने सदाव्रत खोल रक्खा है । जो उसके दरवाजे पर जाता है, सादर इच्छा-भर भिक्षा पाता है ।” तीसरी बोली- “वह जैसी धर्मात्मा है, वैसे ही सदाचारिणी भी है । ” चौथी बोली- “वह जैसी सदाचारिणी है, वैसी ही सर्वप्रिय भी है ; भीतर-बाहर के सभी लोग उससे खुश हैं ।” पांचवी बोली- “ यह तो सब है, परन्तु अब तक यह पता न चला कि वह कौन है, और कहाँ की है ? ” स्त्रियों की बातें सुनकर वह साधु के वेश में राजा नल की मुँहबोली बहन के महल के द्वार पर जा पहुँचा । वहाँ जो उसने आवाज लगाई, तो क्षेत्र के प्रबन्धकर्ता उसे भिक्षा देने लगे । उसने भिक्षा लेने से इनकार कर दिया और कहा- “जब क्षेत्र देनेवाली खुद आकर भिक्षा देगी, तो लूँगा; नहीं तो नहीं लूँगा । ” तब लोगों ने उससे कहा-“इस समय वह दशारानी का व्रत करके पारण कर रही है । जब निश्चिन्त हो जायेंगी, तब तुमको भिक्षा देंगी। तब तक ठहरे रहो। ” वह चुपचाप बैठा रहा । पारण कर लेने के बाद वह मुट्ठी में मोती भरकर आई, परन्तु सामने अपने पति को पल्ला फैलाये देखकर वह मुस्कराती हुई लौट गई । दोनों ने एक दूसरे को अच्छी तरह पहचान लिया ।
रानी ने ननद को मुस्कराते देखकर पूछा- “जिस दिन से तुम आई हो, आज तक मैंने तुमको कभी हँसते नहीं देखा । आज इस परदेशी को देखकर हँसी हो । इसका क्या कारण है ? ” उस ने उत्तर दिया – “वह परदेशी तुम्हारे ही घर का तो है ।” रानी ने पूछा- “तब वह ऐसे क्यों आये ? ” उसने कहा- “अभी तो वह मेरा पता लगाने चले आये हैं ।” रानी ने राजा से कहा- “तुम्हारी मुँहबोली बहन के घर के लोग आये हैं ।” राजा ने कहा- “उनसे कह दिया जाय कि अभी यहाँ से घर जाकर वहाँ से अपनी हैसियत से आयें, तब मैं बहन की विदाई करूँगा ।” तब वह घर को वापस चला गया । उसने माता से कहा- “तुम्हारी बहू राजा नल के यहाँ उसकी बहन होकर रहती है । नित्य सदाव्रत देती है और नियम-धर्म से दिन बिताती है । ” तब माता ने आज्ञा दी कि तुम जाओ, उसे लिवा लाओ । वह डोली-पीनस बाजे-कहार आदि यथोचित लाव-लश्कर के साथ फिर से राजा नल के नगर में गया । राजा ने सम्बन्धी की हैसियत से उसका स्वागत किया और कुछ दिन उसे मेहमानी में रखकर विधिपूर्वक बहन की विदाई की । वह स्त्री तो अपने पति के साथ जाकर आनंद से रहने लगी । इधर कुछ हीं दिनों में राजा का राजसी वैभव लुप्त हो गया और यह हाल हो गया कि वे दोनों कमरी-कथरी ओढ़े फिरने लगे । उनके हीरे पत्थर के हो गये और अटाले (भोजनालय ) में पत्ते खड़खड़ाने लगे ।