दशा माता / दशारानी पहली कथा (Page 3/10)
जंगल में भूखी-प्यासी फिरती- फिरती एक अंधकूप में गिर पड़ी । गिरी परंतु उसे कोई चोट नहीं आई । वह नीचे जाकर बैठ गई । उसी समय किसी नगर का राजा नल उसी जंगल में शिकार खेलने के लिये गये थे । उनके साथ के सब लोग बिछुड़ गये थे । वह प्यास के मारे भटकते हुये उसी कुँए के पास पहुँचे, जिसमें वह स्त्री गिरी हुई थी। राजा के सारथि ने लोटा कुँए में डाला, तो स्त्री ने उस लोटे को पकड़ लिया । तब सारथि ने राजा से कहा- “इस कुँए में तो किसी ने लोटा पकड़ रक्खा है ।” तब राजा ने कुँए की जगत पर जाकर कहा- “भाई ! पुरुष है तो मेरा धर्म भाई है, और स्त्री है तो धर्म की बहन है । तुम जो भी हो, बोलो । मैं तुमको ऊपर निकाल लूँगा ।” स्त्री ने आवाज दी । इस पर राजा ने उसे कुएँ से बाहर निकलवा लिया और अपने साथ हाथी पर बैठाकर अपनी राजधानी में ले आये ।
महाराज शिकार से लौटकर महल की ओर आ रहे थे, तब तक धावनी ने महारानी के पास जाकर खबर दी कि महाराज आ रहे हैं और एक रानी भी साथ ला रहे हैं । रानी अपने मन में बड़ी दुखी हुई । वह सोच ही रही थी कि अब सौत से कैसे निभेगी। इसी सोच में महाराज सामने आ पहुँचे। तब रानी ने हाथ जोड़कर विनय की- “ महाराज ! मुझसे ऐसी क्या बात न बन पड़ी, जो आप मेरे रहते दूसरा विवाह कर लाये हैं ।” उसपर राजा ने हँस कर उत्तर दिया- “वह जो आई है, तुम्हारी सौत नहीं, ननद है । तुमको उसके साथ मेरी सगी बहन-जैसा बर्ताव करना चाहिये ।” यह सुनते हीं रानी का मुँह प्रसन्नता से कमल की तरह खिल उठा । उसने स्वत: कहा- “अब-तक मैं ननद का सुख नहीं जानती थी, अच्छा हुआ जो भाग्य से ननद आ गई । ” राजा ने उसका नाम मुँहबोली बहन रक्खा और उस के लिये एक अलग महल बनवा दिया । उसी में वह आनंद से रहने लगी । इसी प्रकार बहुत दिन बीत गये ।