दशा माता / दशारानी आठवीं कथा(Page 4/4)

राजा ने महल के पास जाकर इत्तला कराई कि अमुक राजधानी का राजा मिलने आया है । रानी ने राजा को पहचानकर उत्तर दिया- “मैं ऐसे दगाबाज राजा से नहीं मिलना चाहती ।” परन्तु उसकी मौसी ने समझाया – “पति परमेश्वर के बराबर होता है । उससे विमुख होकर कभी पीठ न देनी चाहिये । तुमको यही उचित है कि उनका स्वागत करो, यथाशक्ति सत्कार करो और विनय पूर्वक मिलो।”
रानी ने राजा को महल के भीतर बुलवाया और वही डेरे पर ठहराया । दोपहर को राजा भोजन करने गये। उनके साथ एक नाई था। वह भी राजा के समीप ही खाने को बैठा । रानी राजा को तथा उस नाई को परोसने लगी ।
पहली बार ज्यों ही रानी ने नाई के सामने पत्तल रक्खी, त्यों ही उसने रायते का एक छींटा रानी के पैर पर डाल दिया । रानी ने उसकी इस क्रिया को नहीं जाना । दूसरी बार रानी परोसने को आई तब दूसरी पोशाक पहनकर आई । राजा मन में सोचने लगा कि यहाँ तो एक क्या , कई रानियाँ हैं। सभी एक-सी हैं । इन में यदि मेरी रानी हो, तो मैं उसे पहचान नहीं सकता ।
डेरे पर आकर राजा ने नाई से कहा- “यहाँ तो कई रानियाँ हैं । यह कैसे मालूम हो कि अपनी रानी कौन है ?” नाई बोला- “महाराज ! रानी तो एक ही हैं , वह पोशाक बदल-बदल कर परोसने आई , इसी से आपको भ्रम हुआ है । ” राजा ने पूछा- “तूने कैसे जाना कि रानी एक ही हैं ।” वह बोला मैंने पहले ही बार रानी के पैर पर रायते का छींटा डाल दिया था। जब दूसरी बार वह परोसने आई , तब भी उसके पैर पर वह छींटा पड़ा था और तीसरी बार आई, तब भी छींटा मैंने बदस्तूर देखा ।
इसी बीच में रानी ने राजा को महल में बुलाया। वहाँ सेज लगी हुई थी। उसी पर राजा को बिठाकर उसने पान दिये । राजा लेट गया, रानी पैर दबाने लगी । तब राजा ने कहा- “रानी ! बहुत दिन हो गये , अब राजधानी चलो ।” रानी ने जवाब दिया – “मैं नहीं जानती । उस दिन को याद किजिये । मैंने ऐसा क्या अपराध किया था? जिसके कारण आपने मुझे बनवास दिया था। आपने जिस सौत की बात मानकर मेरा अनादर किया था ।अब उसी को लिये हुए बैठ रहिए । आप तो मेरा सर्वनाश कर चुके थे। यह तो सब मेरी मौसी की बदौलत है कि मैं जीती बच गई ।” इस पर राजा ने रानी को बहुत समझाया और अपने किये पर पश्चाताप करते हुए माफी माँगी । तब रानी बोली- “मैं केवल एक शर्त पर आपके साथ चल सकती हूँ ।” राजा ने पूछा –“वह क्या है? ” रानी ने कहा- “आप मेरी मौसी से यह वरदान माँगिये कि यह शहर और यह बाग-बगीचे आपकी राजधानी के समीप पहुँच जायें , जिससे जब मेरा जी चाहे , आपके महल में रहूँ और जब जी चाहे, तब मौसी के दिये हुये महल में चली आऊँ । मेरी मौसी बड़ी दयावान और भोली-भाली है । सम्भव है वह आप की बात को न टाले ।” राजा ने रानी की मौसी (दशारानी) के पास जाकर निवेदन किया- “ यह नगर और बाग-बगीचे मेरे नगर के पास पहुँचा दिये जायें ।” मौसी ने कहा- “ तथास्तु ।”
उसी समय दोनों शहर पास-पास हो गये ; मानों एक दूसरे का एक भाग है । राजा ने दशारानी की कृपा का प्रभाव जानकर शहर भर में ढ़िंढ़ोरा पिटवा दिया कि अब से सभी लोग दशारानी की पूजा किया करें । भगवतती दशारानी ने कुललक्ष्मी रानी पर जैसे कृपा की, वैसी वह आपत्ति में पड़ी हुई स्त्री मात्र पर दया करके उसे ठिकाने लगावें ।

॥ बोला दशारानी माता की जय ॥