दशा माता / दशारानी आठवीं कथा (Page 2/4)

राजा घोड़ा दौड़ाते हुए अपन महलों में जा पहुँचे । कुललक्ष्मी रानी को बाट देखते-देखती सारी रात्रि व्यतीत हो गई। सवेरा हो आया । रानी को प्यास लगी हुई थी , इसलिये वह डोली से बाहर निकली । उसने देखा कि डोली एक पीपल के वृक्ष के नीचे रक्खी है , दूर तक कहीं आबादी का नामो निशान नहीं है । रानी ने आस-पास पानी खोजा ; परंतु कहीं कोई जलाशय दिखाई नहीं दिया ।
उसने एक सारस की जोड़ी को एक तरफ जाते देखा । वह उसी के पीछे हो गई । चलते-चलते कुछ देर के बाद एक नदी के तट पर पहुँच गई । रानी ने वहीं पर नित्य कर्म कर स्नान किया और जल पिया । जिस घाट पर रानी ने स्नान किया, उसी घाट पर कुछ स्त्रियाँ स्नान कर रही थीं। स्नान करके उन्होंने दशारानी के गंडे लिये। उनके पास एक गंडा अधिक था। एक ने रानी से कहा- “एक गंडा तुम ले लो । ” रानी ने उत्तर दिया – “मैं जंगल में रहती हूँ । यहाँ व्रत-पूजन कैसे हो सकेगा? यही सोचकर गंडा लेने से मेरा जी हिचकता है । ”
तब वे बोलीं – “तुम इसकी कोई चिन्ता न करो, दशारानी सब भला करेंगी । तुम इसी जगह आकर नित्यप्रति कथा सुन लिया करो । पूजन के दिन तुम्हारी दशा बदल जायेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं।” रानी गंडा लेकर वहाँ से चली आई और अपने डोली में आकर बैठ गई । थोड़ी देर मे दशारानी एक बुढ़िया का वेश धारणकर आई और रानी से बोली- “बेटी ! यहाँ बैठी क्या कर रही हो ? ” रानी ने पूछा – “पहले तुम यह तो बताओ कि तुम कौन हो ? ”
बुढ़िया ने कहा- “मैं तो तेरी मौसी हूँ ।” तब रानी उसके गले से लिपटकर रोन लगी। उसने अपनी विपत्ति की कहानी बुढ़िया को कह सुनाई और अन्त में यह प्रार्थना की कि अब मुझे केवल तुम्हारा आश्रय और भरोसा है।