दशा माता / दशारानी सातवीं कथा (Page 2/4)

बुढ़िया ने गंडे को प्रेम-पूर्वक लेकर माथे से लगाया। उसी दिन से वह व्रत करने लगी । नौ दिन कथा –कहानी कहती रही । दसवें दिन उसने गंडा के पूजन की तैयारी की। वह देहरी के बाहर लीप रही थी । उसी समय दशारानी माता , एक अति वृद्धा दरिद्रा स्त्री के वेश में उसके द्वार पर आकर बोली- “ क्या करती हो बहन ?” उसने जवाब दिया – “आज मेरे घर दशारानी का पूजन है , सो लीप रही हूँ ।” तब दशारानी ने कहा- “मुझे बहुत प्यास लगी है ; थोड़ा पानी पिला दो । ” तब बुढ़िया ने कहा – “मैं तो मिट्टी के बर्तन से पानी पीती हूँ ; लोटा-लुटिया मेरे कुछ है ही नहीं , तुम को पानी दूँ तो किस में दूँ ? एक कटोरी ही मेरे घर में है , वह भी न जाने कहाँ पड़ी होगी । जरा तुम ठहरो, कटोरी उठा लाऊँ, तब तुमको पानी पिलाऊँ। ”
बुढ़िया हाथ धोकर कटोरी लेने अन्दर गई । तब तक दशारानी माता , उस बुढ़िया के दरवाजे पर एक सोने का घड़ा रखकर अंतर्ध्यान हो गई। बुढ़िया कटोरी लेकर दरवाजे पर आई , तो सोने का घड़ा देखकर सोचने लगी यह बुढ़िया कहा की बला उठाकर रख गई । मुझे चोरी लगेगी, बुढ़ापे में इज्जत जायेगी। इसी चिंता में वह उस बुढ़िया रूपी दशारानी माता को ढ़ूँढ़ने लगी। तब तक उसका लड़का आ गया। लड़के ने पूछा – “ किसे खोजती हो माँ ? ” वह बोली- “एक बुढ़िया न जाने कहाँ से आई और यहाँ सोने का घड़ा रखकर भाग गई है ।” लड़के न कहा-“वही तो दशारानी थीं ।उन्होंने यह घड़ा तुमको दे दिया है। अब की जो फिर कभी आवें तो उनका अच्छी तरह स्वागत करना और सब प्रकार से उनकी आज्ञा-पालन करना ।तुम जब नहाने जाओ तो नदी के घाट पर जो चीजें तुमको मिलें ; उनको दशारानी का दिया हुआ समझकर अंगीकार करना, किसी से पूछताछ न करना कि यह चीज किसकी है; वहाँ कहाँ से आई है? ”