दशा माता / दशारानी पहली कथा (Page 10/10)

जब राजा नल की फौज अपनी राजधानी के पास पहुँची तो वहाँ के लोग घबड़ा उठे । उन्होंने कहा- “ अपने राजा पर तो विपत्ति पड़ी है । वह बाहर भटकते फिरते हैं । यह कोई शत्रु चढ़ा आया है । इसको नजराना देकर मिलना चाहिये ।” अत: वे लोग हीरे-मोती थालों में भर-भरकर राजा से मिलने गाँव के बाहर आये। अपने राजा को पहचानकर उनको बड़ा आनंद हुआ । वे बड़ी श्रद्धा- भक्तिपूर्वक महाराज के आगे होकर उन्हें महल को लिवा चले ।
राजा- रानी ने महल में प्रवेश करके तुरंत ही दशारानी की पूजा का प्रबंध किया । उस नगर की सब सौभाग्यवती स्त्रियों को निमंत्रित किया गया । भगवती के भोग के लिये सब तरह का पकवान बनाया गया। आटे की बँटी हुई दस बत्तियाँ , दस गुड़ या शक्कर की गुझियाँ और दस-दस अठवाइयाँ सुहागिनों के आँचल में डाली गयीं । सुहागिनों का श्रृंगारादि करके दशारानी की पूजा आरम्भ हुई । कलश स्थापित कर जो माणिक दीप जलाया गया तो बत्ती ही नहीं जली । तब पंडितों ने विचार करके कहा - “यदि कोई न्योता पानेवाला न्योतने को रह गया हो, तो स्मरण किया जाय । उसके आ जाने पर दीपक जल जायेगा । ” रानी ने कहा- “ मैंने और सभी को न्योता दिलवा दिया है ; सिर्फ मुँहबोली बहन को न्योता नहीं दिया है । ” पण्डितों ने कहा- “उसे शीघ्र बुलाइये।” राजा ने अपना द्रुतगामी रथ भेजकर मुँहबोली बहन को बुला लिया । उसने कलश का माणिक (दीपक) प्रज्वलित किया । बड़ी धूम-धाम से पूजा हुई । अन्त में सुहागिनों को भोजन कराके विदा किया गया । उसी समय राजा ने राज्य में हुक्म जारी किया कि अब से मेरी प्रजा के सभी लोग दशारानी का व्रत किया करे । भगवती दशारानी ने जैसे राजा नल के दिन फेरे, ऐसे ही वह सबके दिन फेरे ।

॥ बोलो दशारानी की जय ॥