दशा माता / दशारानी चौथी कथा (Page 4/4)
वह ननद के उपालम्भ-पूर्ण वचन सुनकर बाहर निकल आई और कारखाने मे काम करने चली गई । रानी ने अपने भाइ को जगाया , तब वह बोला- “मेरे सर में बहुत दर्द है, मैं अभी नहीं उठूँगा। ” बहन बोली- “यह पीड़ा थकान के कारण है, उठकर स्नान- ध्यान करो ,जलपान करो । तब तुम्हें अच्छा लगेगा।” राजा बोला- “मैं कुछ भी नहीं करूँगा। मुझे परेशान मत करो ।”
रानी ने भाई से पूछा- “आखिर क्या बात है ? कुछ मुझे भी बताओ ? ” राजा ने कहा- “बड़े शर्म की बात है । मैंने तुम्हारी भावज को जान-बूझकर तुम्हारे पास इसलिये भेजा था कि यहाँ उसे तुम आराम से रखोगी पर तुम तो उससे लकड़ी ढ़ुलवाती हो । क्या इसीलिये मैंने उसे तुम्हारे पास भेजा था। ” भाई की बात सुनकर बहन बहुत लज्जित हुई और बोली – “मुझे अब तक यह पता नहीं था कि वह मेरी भावज है। मुझे तो यही पता था कि नदी में बहती-बहती कोई स्त्री मेरे यहाँ आ गई है । अब जाना सो माना ।” यह कह कर उसने दासियों को कहा कि उस लकड़ी ढ़ोनेवाली दासी को बुला लाओ ।
जब दासी रानी आई तो उसकी ननद ने आदर पूर्वक उस के पैर पड़े और अपनी भावज से माफी माँगी- “ मैंने जो कुछ किया वो अनजाने में किया । तुमने भी मुझे कभी अपने बारे में नहीं बताया । मैंने गलती से तुम्हारा अनादर किया।” रानी ने कहा- “इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है । यह सब मेरी दशा के कारण हुआ , जो हो गया, वह हो गया । इसके लिये अपने-आप को दोष न दो।”
कुछ दिनों तक बहन के पास रहकर राजा-रानी अपनी राजधानी को लौट गये । रानी ने चलते समय अपनी ननद से कहा- “ मैंने यहाँ दशा रानी का गंडा लिया था । अब मैं दशारानी माता का पूजा घर जाकर करूँगी । आप भी जरूर आइयेगा ।”
राजा-रानी अपने महल में पहुँच गये । वहाँ रानी ने सुहागिनों को न्यौता दिया, धूम-धाम से दशारानी की पूजा की । राज्यभर में यह मुनादी करवा दी गई कि आज से सब कोई दशारानी के गंडे लिया करे और श्रद्धापूर्वक पूजा किया करें । जिस किसी के पास पूजा की सामग्री न हो वो राजमहल से पूजा की सामग्री ले लिया करे।
जिस प्रकार दशारानी ने सुकुमारी रानी के दिन फेरे ,उसी प्रकार सब के दिन फेरे । कथा सुनने वाले, कहने वाले सब का कल्याण हो ।
॥ बोलो दशारानी की जय ॥