दशा माता / दशारानी चौथी कथा (Page 3/4)

उसी दिन रानी के पति को यह चिंता उत्पन्न हुई कि रानी को सन्दूक में रखकर बहा तो दिया, परन्तु उसका कोई समाचार नहीं मिला कि क्या हुआ? किसी तरह उसकी खबर लगानी चाहिये । अत: राजा एक नौका पर सवार होकर नदी द्वारा सफर करता हुआ अपने बहनोई के यहाँ पहुँचा । संध्या को ब्यालु करके जब वह लेटने लगा, तो बहन से बोला कि मेरे हाथ-पैरों में बहुत दर्द है । किसी को पैर दबाने के लिये बुलवा दो । तब उस राजा कि बहन ने लकड़ी ढ़ोने वाली रानी को बुलाकर हुक्म दिया कि आज कि रात तू मेरे भाइ के पैर दबा दे । वह बड़े संकोच में पड़ गई । अपने मन में अनेक संकल्प-विकल्प करने लगी कि पर- पुरुष का शरीर छुऊँ तो कैसे छुऊँ । स्वामिनी रानी बराबर अपनी बात पर दवाब दे रही थी । लाचार दासी रानी को स्वीकार करना पड़ा।
राजा के पैर दबाते-दबाते रानी को उसके पाँव का पद्म दिख पड़ा। रानी चुपचाप रोने लगी और उसके आँसू राजा के पैरो पर टपक पड़े । तब उसने पूछा- “क्यों री, दासी, तू क्यों रोती है ? रानी डरकर बोली- “ महाराज! मैं तो नहीं रोती हूँ ।” परन्तु राजा ने आश्वासन देकर समझाया –“तू अपना भेद मुझे बता । मेरे कारण तुझे किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचेगी ।” तब वह बोली- “जैसा पद्म आप के पैर में है , वैसा ही मेरे पति के पैर मे था। पहले दिनों कि याद आने से मुझे रुलाई आ गई सो क्षमा किजिये। ”
राजा ने पूछा- “क्या तू किसी राजा की रानी है ।” उसने कहा- “हाँ ।” राजा ने उसका सब हाल पूछा । उसने आदि से अन्त तक सारा हाल कह सुनाया ।
तब राजा बोला- “मैं समझ गया । अब तुम पैर मत दबाओ ; आराम से सोओ । तुम्हारे भाग्य में लिखा था, तो तुमको भोगना ही पड़ा । मैंने उसके टालने के लिये जो उपाय रचा था, उसका उलटा नतीजा हुआ । तुमको मेरे जीते-जी लकड़ी ढ़ोनी हीं पड़ी।” राजा ने अपनी धोती उतारकर रानी को दे दी । रानी एक कोने में पड़कर सो गयी।
सवेरा हुआ। बहुत दिन चढ़ आया। परन्तु अतिथि राजा सोकर नहीं उठे ; न पैर दबाने वाली दासी बाहर निकली । तब तो उसकी बहन को चिंता हुई कि यह क्या हुआ ? क्या दासी ने मेरे भाई को मोह लिय, जो दोनों अब तक सो रहे हैं । दासी रानी उस समय जाग उठी थी।