दशा माता / दशारानी तीसरी कथा (Page 5/6)

तब दु:खिनी ने कहा- “ मेरे भी पाँच भाई –भावज और तुम्हारे जैसे माता-पिता थे ।” साहूकारिन ने फिर पूछा-“फिर क्या हुआ? ” दु:खिनी ने आगे कहा- “ मैंने अपने मायके में दशारानी का गंडा लिया था । लेकिन पूजन के पहले हीं मेरी विदाई हो गई। जब मैं अपने ससुराल पहुँची तो वहाँ की स्त्रियाँ गंडे को देखकर कई तरह की बातें करने लगी। मुझे क्रोध आ गया और मैने गंडे को आग में डाल दिया। पूरे घर में आग लग गई, सब कोई तीन-तेरह हो गये । केवल हम दोनों ही बच पाये । हम दोनों भागकर यहाँ चले आये ।” साहूकारिन ने पूछा-“ और तेरा पति कहाँ है ? ” दु:खिनी ने कहा-“ वह तो भड़भूजों के यहाँ भाड़ झोंकते हैं।” साहूकारिन ने अपनी लड़की को पहचान कर गले से लगा कर रोने लगी । उसके रोने की आवाज सुनकर पाँचों लड़के और बहुएँ भी आ गई । तब साहूकारिन ने कहा- “ यह दु:खिनी कोई और नहीं तेरी बहन है । तुम्हारा बहनोई भड़भूजों के यहाँ भाड़ झोंकता है । दशारानी के कोप से इसकी यह गति हुई है।”
सवेरा होते हीं पाँचों भाई भड़भूजे के घर गये । उन्होंने बहनोई से कहा- “अब तक छिपे रहे सो रहे , अब घर चलो । ” उसने पूछा- “तुम कौन हो? ” वे बोले- “हम लोग तुम्हारे साले हैं ।” वह उनके साथ आने को राजी नहीं होता था , परंतु वे लोग उसे जैसे तैसे पकड़कर घर लाये। उसको स्नान करवाया और उत्तम वस्त्र पहनने को दिये। कुछ दिन पत्नी के साथ ससुराल में रहकर उसने अपने घर जाने की इच्छा जताई। सभी ने सलाह दी कि एक बार अपना घर जाकर देख आओ , फिर पत्नी को ले जाना। वह अपने घर को आया। जब वह घर पहुँचा तो सभी को पहले की भाँति सही-सलामत देखकर बहुत खुश हुआ। वहाँ से डोली-कहार के साथ ससुराल आया । तब उसके सास-ससुर ने अपनी लड़की को विदा कर दिया।