दशा माता / दशारानी दूसरी कथा (Page 2/3)

उत्तम जलाशय, शुद्ध-स्वच्छ मकान तथा ऐसी हीं दिव्य वस्तुओं में सदैव दशारानी का वास रहता है । विमाता ने राजकुमार को कुएँ में डाला और दशारानी ने उसे वहाँ से निकाल लिया । जब दोपहर का समय हुआ, और कुँवर कहीं नहीं दिखाई दिया, तब राजा-रानी को बड़ी चिंता उत्पन्न हुई । सभी जगह पर राजकुमार को ढ़ूँढ़ा जाने लगा । पर कुछ पता न चला ।
राजा-रानी अपने पुत्र को न पाकर व्याकुल होने लगे । दोनों पुत्र-शोक में रोने लगे । पूरे राज्य में निराशा छा गई । इधर दशारानी सोचने लगी कि किस प्रकार से राजकुमार को उसके माता-पिता के पास पहुँचाया जाये। अत: दशारानी ने एक भिखारिणी का वेश धरा एवं एक झोले (थैले ) में राजकुमार को बिठा कर, अपने गले में डाल लिया और राजद्वार पा जा पहुँची । राजद्वार पर जा कर दशारानी ने भिक्षा माँगा । तब सिपाहियों ने उसे दुत्कार कर कहा – “यहाँ राजकुमार खो गया है, सभी लोग दु:खी और चिंता में व्याकुल हो रहे हैं । ऐसे में तुम्हें भिक्षा की पड़ी है । चल हट जा यहाँ से ! ” तब दशारानी बोली- “सिपाहियों ! पुण्य का बड़ा प्रभाव होता है , यदि मुझे भिक्षा मिल जाय तो हो सकता है कि राजकुमार भी मिल जाये ।” यह कहकर वह राजद्वार के अंदर जाने लगी । सिपाहियों ने उसे फिर रोका । उसी समय दशारानी ने बालक का एक पैर दिखाया । सिपाहियों ने समझा कि अभी कुँवर इसके पास है , इसे जाने दो ; कुँवर को भीतर छोड़ कर आने दो । उधर से जब बाहर जाने लगेगी, तब पकड़कर बिठा लेंगे ।