सर्वरोगहारी निम्ब (नीम) सप्तमी व्रत

वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को निम्ब सप्तमी कहते हैं। इस तिथि को निम्ब (नीम)-पत्र का सेवन किया जाता है। यह सप्तमी सभी तरह के व्याधियों को हरनेवाली है। इस दिन हाथ में शार्ङ्गधनुष, शंख, चक्र और गदा धारण किय हुय भगवान सुर्य का ध्यान कर उनके पूजा करने चाहिये।

सर्वरोगहारी निम्ब (नीम) सप्तमी व्रत पूजा विधि:-

प्रात:काल नित्य कर्म कर स्वच्छ वस्त्र पहन कर पूजा घर को पवित्र कर लें। पूजन सामग्री को हाथ में जल लेकर मंत्र-उच्चारण के दवारा शुद्ध कर लें। स्वयं को भी शुद्ध कर लें।
पवित्रीकरण मंत्र:-
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्व अवस्थांगत: अपिवा।
यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स वाह्य अभ्यन्तर: शुचिः॥
ॐ पुण्डरीकाक्ष: पुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्ष: पुनातु,
ॐ पुण्डरीकाक्ष: पुनातु।

सुर्य नारायाण का ध्यान करते हुये मंत्र द्वारा हृदय आदि अंगों में मंत्र का विन्यास करें। सम्मार्जनी मुद्राओं से दिशाओं का प्रतिबोधन करे। भूशोधन करना चाहिये। पूजा की यह विधि सभी के लिये अभीष्ट फल देनेवाली है। लाल अक्ष त से कर्णिकायुक्त अष्टदल बनाये, उसमें आवाहिनी मुद्रा के द्वारा भगवान सुर्य का आवाहन करे। आग्नेय दिशा में भगवान सुर्य के हृदय की, ईशानकोण में सिर की, नैऋत्यकोण में शिखाकी एवं पूर्व दिशामें दोनों नेत्रों की भावना करे। इसके अनंतर ईशानकोण में सोम, पूर्व दिशा में मंगल, आग्नेय में बुध, दक्षिण में बृहस्पति, नैर्ऋत्य दिशा में शुक्र, पश्चिम में शनि, वायव्य में केतु और उत्तर में राहु की स्थापना करें। कमल की द्वीतीय कक्षा में भगवान सुर्य के तेज से उत्पन्न द्वादश आदित्यों- भग, सुर्य, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, विवस्वान, त्वष्टा, पूषा, चंद्र तथा विष्णु को स्थापित करें। पूर्व में इंद्र, दक्षिण में यम, पश्चिम में वरुण, उत्तर में कुबेर, ईशान में ईश्वर, अग्निकोण में अग्निदेवता, नैर्ऋत्य में पितृदेव, वायव्य में वायु तथा जया, विजया, जयंती, अपराजिता, शेष, वासुकि, रेवती, विनायक, महाश्वेता, राज्ञी, सुवर्चला आदि तथा अन्य देवताओं के समूह को यथास्थान स्थापित करें। सिद्धि, वृद्धि, स्मृति, उत्पमालिनी तथा श्री इनको अपने दक्षिण पार्श्व में स्थापित करना चाहिये। प्रज्ञावती, विभा, हरीता, बुद्धि, ऋद्धि, विसृष्टि, पौर्णमासी तथा विभावरी आदि देव-शक्तियों को अपने उत्तर भगवान सुर्य के समीप स्थापित करना चाहिये।

उसके बाद मनोहर स्वरूप भगवान खखोल्क को स्नान कराये। भगवान सुर्य की स्थापना और स्नान आदि कर्म मंत्रों के द्वारा करने चाहिये। इस प्रकार भगवान सुर्य तथा उनके परिकरों एवं देव-शक्तियों की स्थापना करने के अनंतर मंत्रपूर्वक धूप, दीप, नैवेद्य, अलंकार, वस्त्र, पुष्प आदि उपचारों से भगवान सुर्य तथा उनके अनुगामी देवों की पूजा करें। इस विधि से भास्कर की सदा अर्चना करनेवाले की सभी मनोकामनायें पूर्ण होती है और वह सुर्यलोक को प्राप्त करता है। पूजा के बाद निम्नलिखित मंत्र द्वारा निम्ब (नीम) की प्रार्थना कर उसे भगवान को निवेदित करें और प्रसाद के रूप में स्वयं खा लें:-
त्वं निम्ब कटुकात्मासि आदित्यनिलयस्तथा।
सर्वरोगहर: शान्तोभव मे प्राशनं सदा॥
अर्थ:- “हे निम्ब ! तुम भगवान सुर्य के आश्रयस्थान हो। तुम कटु स्वाभाव वाले हो, तुम्हारे भक्षण करने से मेरे सभी रोग सदा के लिये नष्ट हो जायें और तुम मेरे लिये सदा शान्तस्वरूप हो जाओ।”
इस मंत्र से निम्ब (नीम) का प्राशन कर भगवान सुर्य के समक्ष पृथ्वी पर बैठकर सुर्यमंत्र का जप करे।
भगवान सुर्य का मूल मंत्र है- “ऊँ खखोल्काय नम:”।
सुर्य गायत्री मंत्र :-
“ऊँ आदित्याय विद्महे विध्वभागाय धीमहि। तन्न: सुर्य: प्रचोदयात्॥”
तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको भोजन कराये एवं यथाशक्ति दान दें। स्वयं नमक-रहित भोजन करें। रात्रि को सुर्य भगवान के समीप हीं शयन करें। अगले दिन अष्टमी को प्रात:काल सुर्यनारायण की पूजा करें और सभी पूजन सामग्री विसर्जित करें। इस प्रकार एक वर्ष तक व्रत करनेवाला व्यक्ति सभी रोगों से मुक्त हो सुर्यलोक को जाता है।