आदित्याष्टमी व्रत
शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को यदि रविवार पड़े तो उस तिथि को आदित्याष्टमी कहते हैं। इस व्रत को करने वाला सुर्यलोक के सभी सुख भोग कर अंत में परमपद को पाता है। व्रत करनेवाले को कभी भे शोक,दु:ख और भय का सामना नहीं करना पड़ता है।
आदित्याष्टमी व्रत विधि एवं महात्म्य:-
शुक्ल-पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन यदि रविवार हो तो उस दिन उमासहित भगवान चंद्रचूड़ का पूजन करे। इस व्रत में ऐसी प्रतिमा की पूजा की जाती है, जिसके दक्षिण भाग शिवस्वरूप और वाम भाग उमास्वरूप हो।
प्रात:काल स्नानादि नित्य कर्म से निवृत हो आसन पर बैठ जायें। उमासहित शिव की प्रतिमा की स्थापना करें।अनंतर विधिपूर्वक प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करवायें। दिव्य पद्मराग से भगवान शंकर को और सुवर्ण से पार्वती जी को अलंकृत करें। यदि रत्नों की सुविधा न हो तो सुवर्ण हीं चढ़ायें। चंदन से भगवान शिव को और कुंकुम से माता पार्वती को अनुलेपित करें। भगवती पार्वती को लाल वस्त्र और लाल माला तथा भगवान शंकर को रुद्राक्ष निवेदित करें। नैवेद्य में घृत में बने हुये पकवान निवेदित करें। पचीस प्रज्वलित दीपकों से उमासहित भगवान चंद्रचूड़ की आरती करे। उस दिन निराहार रहें। अगले दिन प्रात: इसी प्रकार पूजन सम्पन्न कर तिल तथा घी से हवन करें। तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराये। यथाशक्ति सपत्नी ब्राह्मण की पूजा करे और पितरों का भी अर्चन करे। पारण गव्य-पदार्थो ( दूध, दही, मिष्ठान्न) से करे। एक वर्ष तक इस प्रकार व्रत करके एक त्रिकोण तथा दूसरा चतुष्कोण (चौकोर) मण्डल बनाये। तदनंतर विधिपूर्वक पार्वती एवं शंकरजी की पूजा करें। उसके बाद श्वेत एवं पीत वस्त्र के दो वितान, पताका, घण्टा, धूपदानी, दीपमाला आदि पूजन के उपकरण ब्राह्मण को समर्पित करे और यथाशक्ति भोजन भी कराये। ब्राह्मण-दम्पत्ति को वस्त्र, आभूषण, भोजन आदि से पूजन कर पचीस प्रज्वलित दीपकों से धीरे-धीरे नीराजन(आरती) करे। इस प्रकार भक्तिपूर्वक इस व्रत को एक वर्ष अथवा लगातार पाँच वर्ष करनेवाला सुर्य आदि लोकों मे उत्तम भोग को प्राप्त कर अंत में परम पद को प्राप्त करता है।
॥ इति ॥