वैशाख पूर्णिमा / बुद्ध पूर्णिमा (Buddha Purnima / Baisakh Purnima)

वैशाख पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा भी कहते हैं। वैशाख पूर्णिमा को हीं भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था, उन्हें ज्ञान की प्राप्ति भी इसी तिथि को हुई थी और उनको निर्वाण प्राप्त भी इसी तिथि को हुआ था। बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म का प्रमुख त्योहार है। अलग-अलग जगहों में बौद्ध धर्म के अनुयायी इस पर्व को अलग-अलग ढ़ंग से मनाते हैं। बुद्ध को विष्णु का नवां अवतार माना जाता है।

अलग-अलग स्थानों में अपने देश की संस्कृति और परम्पराओं के अनुसार बुद्ध पूर्णिमा मनाया जाता है:-
- बौद्ध अनुयायी अपने घरों को फूलों से सजाकर दीपक जलाते हैं।
-बोधगया में इस दिन अलग-अलग देशों में रहन वाले बौद्ध-अनुयायी आते हैं और इस तिथि को प्रार्थना करते हैं।
- बौद्ध धर्मग्रंथों का पाठ करते हैं।
- भगवान बुद्ध की मूर्ति की पूजा की जाती है।
- बोधिवृक्ष(पीपल के वृक्ष) की पूजा करते है। दीपक जलाते हैं।बोधिवृक्ष को सजाया जाता है।
- दान किये जाते हैं।

भगवान बुद्ध का जीवन परिचय:-

इनका जन्म 563 ई.पू. कपिलवस्तु के लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था। इनकी माता का नाम मायादेवी और पिता का नाम शुद्धोदन था। उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनकी शादी यशोधरा से हुई थे तथा उनके पुत्र का नाम राहुल था। एक बार जब वे भ्रमण को जा रहे थे तो एक उन्होंने एक बीमार को देखा, थोड़ा आगे जाने पर वृद्ध मनुष्य को देखा और कुछ दूर आगे जाने पर उनकी नजर एक मृत्य व्यक्ति पर पड़ी। ये सब देख कर सिद्धार्थ को भी लगा की वे भी एक दिन वृद्ध होंगे, बीमार होंगे और अंत में मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे। इसके बाद से हीं वे उनके मन में सन्यास की भावना जग गई। 29 वर्ष की आयु में एक रात व अपनी पत्नी तथा पुत्र को सोते हुय छोड़ कर घर से चले गये। इसके बाद उन्होंने बहुत तपस्या की। लगभग सात वर्षों तक वे ज्ञान और सत्य की खोज में इधर –उधर भटकते रहे। तब जाकर उन्हें बोधगया के पास पीपल वृक्ष के नीचे ज्ञान के प्राप्ति हुई। पीपल वृक्ष को बोधिवृक्ष भी कहते हैं। उनके अनुसार मनुष्य मात्र का कल्याण करना और सब प्राणियों का हित सम्पादन करना ही उनका परम लक्ष्य था। उसके बाद उन्होंने जगह-जगह घूम-घूमकर अपना संदेश सब को दिया। गया से चलकर वे काशी पहुँचे, वहाँ पर सारनाथ में उन्होंने अपना पहला संदेश दिया था एवं बौद्ध धर्म की शुरुआत की थी। वैशाख पूर्णिमा को ही 483 ई.पू. देवरिया जिले के कुशीनगर में 80 वर्ष की उम्र में उन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई।