सुख और दुख दोनों ईश्वर की देन है, दोनों में खुश रहें।
एक बार की बात है एक दास अपने मालिक के पास बैठा हुआ था। मालिक ने ककड़ी खरीदी और उसे खाने लगे। जैसे ही मालिक ने ककड़ी खाया उन्हें ककड़ी बहुत कड़वी लगी। अत: मालिक ने वह ककड़ी अपने दास को खाने के लिये दे दी। दास ने बड़े प्यार से हँसते हुए उस ककड़ी को खा लिया। जब दास पूरा ककड़ी खा चुका, तब मालिक ने पूछा- “दास! ये बताओ, तुमने इतनी कड़वी ककड़ी कैसे हँसते हुए खा ली? ” दास ने कहा- मालिक! आप मुझे हमेशा स्वादिष्ट भोजन खाने को देते हैं, वह मैं प्रसन्नता से खा लेता हूँ। इसलिये आज मैंने सोचा कि यदि मालिक की इच्छा है की आज मैं कड़वी ककड़ी खा लूँ, तो उसे भी मुझे प्रसन्न होकर खाना चाहिये।”
दास की बात सुनकर मालिक ने कहा – “आज तुमने मुझे बहुत बड़ी सीख दे दी। जो ईश्वर हमें जीवन में अनेक सुख देता है, यदि वह मुझे दुख भी दे तो मुझे उस दुख को प्रसन्नता से झेलना चाहिये। जीवन के हर प्रकार के अनुभव को प्रसन्नता से स्वीकार करना चाहिये। ”
अनुभव से ही हमें परिपक्वता मिलती है। जैसे हम हर सुख को ईश्वर का आशीर्वाद मानकर प्रसन्न होते हैं उसी तरह से दुख को भी ईश्वर की देन मानकर प्रसन्नता एवं धैर्य के साथ सहना चाहिये।
जीवन के फैसले
एक कुम्हार मिट्टी से चिलम बनाने जा रहा था..। उसने चिलम का आकार दिया..। थोड़ी देर में उसने चिलम को बिगाड़ दिया...
मिट्टी ने पूछा -: “अरे कुम्हार, तुमने चिलम अच्छी बनाई फिर बिगाड़ क्यों दिया.? ”
कुम्हार ने कहा -: “ अरी मिट्टी, पहले मैं चिलम बनाने की सोच रहा था, किन्तु मेरा विचार बदल गया और अब मैं सुराही बनाऊंगा,,,। ”
ये सुनकर मिट्टी बोली -: “हे कुम्हार ! *मुझे खुशी* है, तुम्हारी तो केवल मति ही बदली, मेरी तो जिंदगी ही बदल गयी. चिलम बनती तो स्वयं भी जलती और दूसरों को भी जलाती, अब सुराही बनूँगी, तो स्वयं भी शीतल रहूंगी और दूसरों को भी शीतल रखूंगी ।”
प्रेरणा:-
"यदि जीवन में हम सभी सही फैसला लें तो हम स्वयं भी खुश रहेंगे एवं दूसरों को भी खुशियाँ दे सकेंगे