पुत्रदा एकादशी व्रत कथा (Page 2/4)

पूर्वकाल की बात है, भद्रावती पुरी में राजा सुकेतुमान् राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम चम्पा था। राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ।
इसलिये दोनों पति-पत्नी सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते थे। राजा के पितर उनके दिये हुए जल को शोकोच्छ्वास से गरम कर के पीते थे।
‘राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता जो हमलोगों का तर्पण करेगा’ यह सोच-सोचकर पितर दु:खी रहते थे।
एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये।
पुरोहित आदि किसी को भी इस बात का पता न था। मृग और पक्षियों से सेवित उस सघन कानन में राजा भ्रमण करने लगे। मार्ग में कहीं सियार की बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओं की। जहाँ-तहाँ रीछ और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे।
इस प्रकार घूम-घूमकर राजा वन की शोभा देख रहे थे, इतने में दोपहर हो गया। राजा को भूख और प्यास सताने लगी। वे जल की खोज में इधर-उधर भटकने लगे।
किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे। शोभाशाली नरेश ने उन आश्रमों की ओर देखा। उस समय शुभ की सूचना देनेवाले शकुन होने लगे। राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगा, जो उत्तम फल की सूचना दे रहा था। सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेद –पाठ कर रहे थे। उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ।