पौष संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा Page 3/4
रावण ने कहा-हे नाना जी ! देवताओं को जीतने के कारण गर्व करने से मेरी यह दुर्गति हुई है। मैंने संध्या करते हुए वानरराज को देखा । पश्चिमी महासागर के तट पर मैंने उसे पीछे से पकड़ने की चेष्टा की । परंतु मैं ही उसके द्वारा पकड़ लिया गया। मुझे उसने यहाँ लाकर गले में रस्सी बाँधकर अपने लड़के को खेलने के लिये दे दिया। इस दुर्गति को देखकर नगरवासी मेरी हँसी उड़ाते हैं। हे देव! इसी चिन्ता में मैं व्याकुल रहता हूँ। रस्सी में बंधे रहने के कारण मैं अशक्त हो गया हूँ। हे नाथ ! अब मैं क्या करूँ ? मेरे जैसा आपके वंश में दूसरा कुलकलंकी नहीं है। अब आप ही मेरी रक्षा कर सकते हैं। पुलस्त्य जी ने कहा- हे रावण! डरने की कोई बात नहीं है। मैं तुम्हें बन्धनमुक्त करा दूँगा। यह बालि देवराज इन्द्र के वीर्य से उत्पन्न है और पराक्रम में तुमसे बढ़कर है । इसकी मृत्यु महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम के हाथों होगी।