पद्मनाभ द्वादशी व्रत कथा
अगस्त्य जी बोले- राजन! पूर्वजन्म में यह रानी किसी नगर में हरिदत्त नामक एक वैश्य के घर में दासी का काम करती थी। उस समय भी तुम्हीं इसके पति थे। हरिदत्त के ही यहाँ तुम भी सेवावृत्ति से एक कर्मचारी का काम करते थे। एक समय की बात है, आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी का व्रत नियमपूर्वक करने के लिये वह वैश्य तत्पर हुआ ।
स्वयं भगवान विष्णु के मंदिर में जाकर पुष्प एवं धूप आदि से उन प्रभु की पूजा की । तुम दोनों- स्त्री- एवं पुरुष उस वैश्य की सुरक्षा के लिये साथ थे । पूजनोपरान्त वह वैश्य तो अपने घर लौट आया।
महामते ! दीपक बुझ न जाये, इसलिये तुम दोनों को वहीं रहने की आज्ञा दे दी । उस वैश्य के चले जाने पर तुमलोग दीपक को भली भाँति जलाकर वहीं बैठे रहे।
राजन ! तुमलोग पूरी एक रात –जब तक सवेरा न हुआ, तबतक वहाँ से नहीं हटे। कुछ दिनों के बाद आयु समाप्त हो जाने के कारण तुम दोनों स्त्री - पुरुषों की मृत्यु हो गयी ।
उस पुण्य के प्रभाव से राजा प्रियव्रत के घर तुम्हारा जन्म हुआ और तुम्हारी वह पत्नी, जो उस जन्म में वैश्य के यहाँ दासी का काम करती थी , अब रानी हुई । वह दीपक दूसरे का था । भगवान विष्णु के मंदिर में केवल उसे प्रज्वलित रखने का काम तुम्हारा था । यह उसी का ऐसा फल है ।
फिर जो अपने द्रव्य से श्रीहरि के सामने दीपक प्रज्वलित करे, उसका जो पुण्य है, उसकी संख्या तो की ही नहीं जा सकती ।
इसी से मैंने कहा-‘ राजन ! आप धन्य हैं। आप धन्य हैं ।’ सत्ययुग में पूरे वर्ष तक , तेतायुग में आधे वर्षतक तथा द्वापर युग में तीन महीनों तक भक्तिपूर्वक श्री हरि की पूजा करने से विद्वान पुरुष जो फल प्राप्त करते हैं , कलियुगमें उतना फल केवल ‘नमो नारायणाय’ कहकर प्राप्त कियाजा सकता है । इसमें कोई संशय नहीं है ।
इसीलिये मेरे मुख से निकल गया, ‘यह सारा जगत वञ्चित हो गया है।’ मैंने केवल भक्ति की बात कही है । भगवान विष्णु के सम्मुख दूसरे के जलाये दीपक को प्रज्वलित कर देनेमात्र से ऐसा फल प्राप्त हुआ है । अब जो मैंने मूर्ख होने की बात कही, इसका अभिप्राय इतना ही है कि भगवान के मंदिर में दीप -दान करने के महत्व को ये लोग नहीं जानते। मैंने ब्राह्मणों और राजाओं को धन्यवाद इसलिये दिया है कि जो अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा भक्ति के साथ उक्त विधि से श्रीहरि की उपासना करते हैं, वे धन्यवाद के पात्र होते हैं ।
मुझे उन प्रभु के अतिरिक्त इस जगत् में अन्य कुछ भी नहीं दीखता, अत: मैंने अपने को भी धन्य कहा । इस स्त्री को तथा तुम्हें धन्य बताने का कारण यह है कि यह एक वैश्य के घर सेविका थी और तुम भी सेवा का ही कार्य करते थे। स्वामी के चले जाने पर तुमलोगों ने भगवान के मन्दिर में दीपक को प्रज्वलित रखा । अत: यह स्त्री और इससे बढ़कर तुम धन्यवाद के पात्र हो ।
प्रह्लाद के शरीर में आसुर भावना के बीज थे, फिर भी परम पुरुष परमात्मा को छोड़कर उनकी दृष्टि में अन्य कोई सत्ता न थी, अत: मैंने उन्हें धन्य कहा है । ध्रुव का जन्म राजा के घर में हुआ था । बचपन में ही वे वन में चले गये और वहाँ भगवान विष्णु की आराधना कर सर्वोत्कृष्ट सुन्दर स्थान प्राप्त किया। महाराज ! इसलिये मैंने ध्रुव को भी साधु है।
अगस्त्य जी से राजा भद्राश्व ने संक्षेप रूप से उपदेश देने की प्रार्थना की थी; अत: मुनि ने कहा- ‘राजन! अब कार्तिक की पूर्णिमा का पर्व आ गया है। मैं पुष्कर क्षेत्र जा रहा हूँ ’ यों कहकर वे चल पड़े । पुष्कर जाते समय ही वे राजा भद्राश्व के महल पर रूके थे और उन मुनिवर ने राजा को द्वादशी व्रत करने का उपदेश दिया था। चलते समय मुनि ने राजा को पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दे गये।
राजा भद्राश्व ने भी भगवान पद्मनाभ की दवादशी का व्रत किया। फलत: वे पुत्र-पौत्र और उत्तम-से-उत्तम भोगों से सम्पन्न होकर अंत में भगवान पद्मनाभ के धाम को प्राप्त हुए ।