कामदा एकादशी व्रत कथा (Page 3/4)

महाराज पुण्डरिक के इतना कहते हीं वह गंधर्व राक्षस हो गया।
भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखने मात्र से भय उपजानेवाला रूप। ऐसा राक्षस होकर वह कर्मका फल भोगने लगा।
ललिता अपने पति की विकराल आकृति देख मन-ही-मन बहुत चिन्तित हुई । भारी दु:ख से कष्ट पाने लगी।
सोचने लगी- “क्या करूँ? कहाँ जाऊँ ? मेरे पति पाप से कष्ट पा रहे हैं।” वह रोती हुई घने जंगलों मे पति के पीछे-पीछे घूमने लगी ।
वन में उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक शांत मुनि बैठे हुए थे। उनका किसी भी प्राणी के साथ वैर-विरोध नहीं था ।
ललिता शीघ्रता के साथ वहाँ गयी और मुनि को प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई ।
मुनि बड़े दयालु थे । उस दु:खिनी को देखकर वे इस प्रकार बोले- “शुभे ! तुम कौन हो ? कहाँ से यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच-सच बताओ।”
ललिता ने कहा- “महामुने ! वीरधन्वा नामवाले एक गंधर्व है। मैं उन्हीं महात्मा की पुत्री हूँ । मेरा नाम ललिता है । मेरे स्वामी अपने पाप-दोष के कारण राक्षस हो गये हैं। उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है। ब्रह्मन ! इस समय मेरा जो कर्तव्य हो, वह बताइये । विप्रवर ! जिस पुण्य के द्वारा मेरे पति राक्षसभाव से छुटकारा पा जाये, उसका उपदेश किजिये। ”