मार्गशीर्ष (अगहन) संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा-गणेश चतुर्थी

उनकी बात सुनकर सम्पाती ने कहा कि तुम सब रामचन्द्र के सेवक होने के नाते हमारे मित्र हो । जानकी जी का जिसने हरण किया है और वह जिस स्थान पर है वह मुझे मालूम है। सीता जी के लिए मेरा छोटा भाई जटायु अपने प्राण गँवा चुका है ।
श्रीरामचन्द्र जी के चरण कमल का स्मरण कर हमारे भाई ने अपना शरीर त्यागा है। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर समुद्र है और समुद्र के उस पार राक्षस नगरी है।
वहां अशोक के पेड़ के नीचे सीता जी बैठी हुई है, आप लोगों को उतनी दूर नहीं दिखाई पड़ सकता; लेकिन मेरी दृष्टी तेज है। रावण द्वार अपहृत सीता जी मुझे दिखाई दे रही है। मैं आपसे सत्य कह रहा हूँ ।
सभी वानरों में हनुमान जी अत्यंत पराक्रमशाली हैं । अत: उन्हें वहाँ जाना चाहिए। अन्य कोई भी इस कार्य में समर्थ नहीं है ।
सम्पाती की बात सुनकर हनुमान जी ने पूछा कि हे सम्पाती ! दुस्तर समुद्र को मैं किस प्रकार पार कर सकता हूँ ? हमारे सब वानर उस पार जाने में असमर्थ हैं तो मैं ही अकेला कैसे पार जा सकता हूँ?
हनुमान जी की बात सुनकर सम्पाती ने उत्तर दिया कि हे मित्र ! आप संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत किजिये । उस व्रत के प्रभाव से समुद्र को क्षणमात्र में पार कर लेंगे।
सम्पाती के आदेश से संकट चतुर्थी के उत्तम व्रत को हनुमान जी ने किया। हे देवी ! इसके प्रभाव से क्षणभर में समुद्र को लांघ गये। इस लोक में इसके समान सुखदायक दूसरा कोई व्रत नहीं है।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि महाराज युधिष्ठिर! आप भी इस व्रत को किजिए। इस व्रत के प्रभाव से आप क्षणभर में अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पूर्ण राज्य के अधिकारी बनेंगे। भगवान कृष्ण का वचन सुनकर युधिष्ठिर ने गणेश चतुर्थी का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वे अपने शत्रुओं को जीतकर राज्य के अधिकारी बन गये।