कुर्म द्वादशी व्रत कथा
दुर्वासाजी कहते हैं- मुने! पौषमासका कूर्म-द्वादशीव्रत भी मार्गशीर्ष मास के मत्स्य-द्वादशी के समान ही हैं। इसी मास में देवताओं ने समुद्र् का मंथन कर अमृत प्राप्त किया था उस समय भक्तों को अभिलषित पदार्थ देनेमें कुशल स्वयं भगवान् नारायण कच्छप-रूप से अवतरित हुए थे। उस दिन यही महान पवित्र तिथि थी। अत: पौष मास के शुक्ल पक्ष की यह दशमी – इस कूर्मरूप धारण करनेवाले परम प्रभु परमात्मा की तिथि है। व्रतीको चाहिये कि पूर्वकथानुसार दशमी तिथि के दिन स्नान आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ सम्पन्न कर एकादशी तिथि में भक्तिके साथ भगवान् श्रीजनार्दन की आराधना करे। मुनिवर! पूजा के मंत्र अलग-अलग हैं । उन मंत्रों से भगवान श्रीहरि का पूजन होना आवश्यक है। ‘ऊँ कूर्माय नम:’ ‘ऊँ नाराणाय नम’ ‘ऊँ सङ्कर्षणाय नम:’ ‘ऊँ विशोकाय नम:’ ‘ऊँ भवाय नम:’ ‘ऊँ सुवाहवे नम:’ ‘ऊँ विशालाय नम:’ । इन वाक्यों का उच्चारण कर क्रमश: भगवान् श्रीहरिके चरण,कटिभाग, उदर,वक्ष:स्थल,कण्ठ,भुजाएँ एवं सिर की भलीभाँति (पूर्वोक्त प्रकारसे भी) पूजा करनी चाहिये।
इसके बाद सामने चार जलपूर्ण कलश स्थापित करे। कलश को माला और दो वस्त्र से सुसज्जित एवं अलंकृत करें । कलश के भीतर रत्न डालें तथा ऊपर घृत से भरा हुआ ताँबे का एक पात्र रखकर उसीमें प्रतिमा का अभिधारण करें। इन चार कलशों को चार समुद्र मानकर उनके मध्यभाग में एक चौकी को स्थापित करें। उस चौकी के ऊपर भगवान कूर्म की सुवर्ण की मूर्ति स्थापित करें। साथ में मन्दराचलकी भी प्रतिमा रखें। तत्पश्चात् पुष्प,चंदन एवं अर्घ्य आदि उपचारों से पूजा करे। उस समय मन में संकल्पकरें- “मैं कल अपनीशक्ति के अनुरूप दक्षिणा आदि से ब्राह्मणों की पूजा करूँगा। इसमें कूर्म-रूप में प्रकट होनेवाले देवाधिदेव! भगवान् नारायण को मैं प्रसन्न करना चहता हूँ। ” द्वादशी की कथा सुने। भगवान् के सामने श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूरी रात जागरण करे । प्रात:काल सुर्योदय होनेपर स्नान कर, पूजा करें । उसके बाद वह प्रतिमा और दक्षिणा ब्राह्मण को दे । उसके बाद भोजन करें।