जया पार्वती व्रत | Jaya Parvati Vrat

जया पार्वती का व्रत आषाढ़ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को शुरु कर श्रावण कृष्ण पक्ष की तृतीया तक किया जाता है। यह पाँच दिनों तक चलनेवाला व्रत है। इस व्रत के करने से सुख,सौभाग्य और संतान की प्राप्ति होती है। जो इस व्रत को करता है , वह पति से कभी भी वियुक्त नहीं होता। इस कथा को सुनने वाला सभी पापों से छूट जाता है। इस व्रत में नमक का निषेध है।

पूजा सामग्री:-

वृषभ पर बैठे हुये उमा-महेश्वर की मूर्ति
लकड़ी का पटरा या चौकी
लाल वस्त्र
धूप
दीप
अक्षत
अष्टगन्ध
चंदन
कुंकुम
अगरु
कस्तूरी
सिन्दूर
शतपत्र
ऋतु के पुष्प
दूर्वा
पुष्पमाला
नैवेद्य
दो उपवस्त्र
श्रीफल
ऋतुफल
जल पात्र
कपूर
घी

व्रत विधि:

आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी के दिन प्रात: काल उठकर काष्ठ का दातुन करें।
‘आयुर्बलम् यशा वच: प्रजा: पशुवसूनि च। ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पति॥’
यह दातुन का मंत्र है। इसके बाद स्नान कर व्रत का संकल्प यह कहकर करें:-
“हे रुद्राणी! मैं आनन्द के साथ स्वादहीन धान से एकभुक्त व्रत करूँगा। आप मुझ पर कृपा कर मेरे पापों को नष्ट करें। ” संकल्प के बाद पूजा गृह को सवच्छ कर लकड़ी के पटरे पर लाल वस्त्र बिछाकर वृषभ पर बैठे हुये उमा-महेश्वर की प्रतिमा स्थापित करें। उसके बाद कुंकुम, अगरु, कस्तूरी, सिन्दूर, अष्टगन्ध, चम्पक, शतपत्र, ऋतु के पुष्प, दूर्वा इनसे विधान के साथ पूजा करें। तत्पश्चात शुद्ध जल, दो उपवस्त्र, श्रीफल, ऋतुफल से अर्घ्य अर्पित करें और कहें- हे सबकी प्रथमे! हे देवि! हे शर्वाणी! हे शंकर की सदा प्यारी! हे देवेशि! मेरे पर कृपा कर यह अर्घ्य ग्रहण किजिये। ” अर्घ्य के बाद कथा सुने अथवा सुनाये। माता की आरती करें।
आरती के बाद मां पार्वती का ध्यान कर माता पार्वती से सुख-सौभाग्य और शांति के लिए प्रार्थना करें और पूजा में जाने-अनजाने में हुई गलतियों की क्षमा मांगे।
अगर हो सके तो ब्राह्मण को भोजन करवायें और दक्षिणा अर्पित करें।

जयापार्वती व्रत

आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी को जया पार्वती व्रत किया जाता है। श्री लक्ष्मीजी बोली- “हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे भोग और मोक्ष के दाता ! संसार के कल्याण के लिये प्रसन्न होकर ऐसे व्रत को कहिये जो स्त्रियों को सदा सुहागन और अखण्ड फल दे। ’ श्री भगवान बोले- “हे देवि! मैं उस उत्तम व्रत को कहता हूँ, जिसे मैंने आजतक किसी को नहीं कहा है। वो परम गोपनीय व्रत किसी से कहने लायक भी नहीं है, पवित्र है, पापों को नष्ट करनेवाला है। जिसके करने पर स्त्रियों को कभी वैधव्य की प्राप्ति नहीं होती। इसे आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी के दिन करना चाहिये। दातुन करने नियम ग्रहण करे। ‘आयुर्बलम् यशा वच: प्रजा: पशुवसूनि च। ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पति॥’ यह दातुन का मंत्र है। नियम से फल मिलता है, बिना नियम के निष्फल है, इस कारण नियम पूर्वक प्रयत्न के साथ व्रत करना चाहिये। मैं आनन्द के साथ स्वादहीन धान से एकभुक्त व्रत करूँगा। आप मुझ पर कृपा कर मेरे पापों को नष्ट करें। अपने शक्ति के अनुसार सोने, चाँदी अथवा मिट्टी की उमा-महेश्वर की मूर्ति वृषभ पर बैठे हुये बनवायें। हे वरानने! उस दिन दातुन कर,स्नान शुद्धि करके पूजा करे। कुंकुम, अगरु, कस्तूरी, सिन्दूर, अष्टगन्ध,चम्पक, शतपत्र, ऋतु के पुष्प, दूर्वा इनसे विधान के साथ पूजा कर शुद्ध पानी , दो उत्तरीयों, श्रीफल, ऋतुफल से अर्घ्य दें और कहें- हे सबकी प्रथमे! हे देवि! हे शर्वाणी! हे शंकर की सदा प्यारी! हे देवेशि! मेरे पर कृपा कर यह अर्घ्य ग्रहण किजिये। ” पूजा के बाद कथा सुने।
श्री महालक्ष्मीजी बोली-“ हे आदिपुरुष! हे व्रताध्यक्ष! तुम्हें नमस्कार है । हे माहाप्राज्ञ! हे प्रभो! अब आप कृपा करके यह कहिये कि इस श्रेष्ठ व्रतको सबसे पहले मर्त्यलोक में किसने किया था। हे जगदीश्वर! यह सब प्रयत्न पूर्वक मुझसे कहिये।”
श्री भगवान बोले-मैं पार्वतीजी की इस कथा को कहता हूं, जिसको सुनकर असंशय सब पापों से मुक्ति हो जाती है। पहले कृतियुग में कौण्डिन्य नगर था। उसमें वेद के तत्त्व को जाननेवाला, सत्य और धर्म में रत रहनेवाला, गुणवान एवं शील सम्पन्न वामन नामक ब्राह्मण था। उसकी रूप और सबलक्षणों से युक्त सत्या नाम की प्यारी स्त्री था, उस वेदवेत्ता के धनाढ़्य घर में सब सम्पत्तियाँ थीं। पर पहले के कर्म फल के कारण कोई संतान नहीं थी, संतान के बिना शून्य घर श्मशान के बराबर था। इसी दुख से वे दोनों दुर्बल हो चुके थे। एक दिन उनके घर नारद जी पधारे। स्त्री के साथ उस ब्राह्मण ने नारद जी को अर्घ्य पाद्य आदि दे कर सत्कार किया। उसके बाद बोला- हे ऋषिवर! आप सब ज्ञानों से भरपूर श्रेष्ठ ऋषि हैं। कृपा करके कहिये कि दु:ख की निवृत्ति कैसे हो? हे देवर्षे! वह दान, व्रत, नियम कौन सा है ? या कोई तीर्थ हो जिससे हमें संतान की प्राप्ति हो सके। यह सुन नारद जी ने कहा-“हे विप्र! मैं उपाय कहता हूँ उससे तुझे संतान होगी।वन के दक्षिणी छोर पर बिल्व के वृक्ष के बीच भवानी के साथ शिवजी लिंग रूप से विराजित हैं। उनकी सेवा करो,वे प्रसन्न होकर आपको संतान देंगे, क्योंकि अपूज्य लिंग की भी सेवा करके मनुष्य सन्तति पा लेता है।” ऐसा कहकर नारद मुनि वहाँ से चले गये। अगले दिन वे दोनों ब्राह्मण दम्पत्ति नारद जी के बताये हुये बिल्व वृक्ष के पास गये।वहाँ पर उन्होंने एक शिवलिंग देखा जो बिल्व वृक्ष के सूखे पत्तों से ढ़ँका हुआ था।
दोनों ने मिलकर उस स्थान को साफ कर लीपा और विधिपूर्वक पूजा की।इस प्रकार से वे प्रतिदिन उस शिवलिंग की पूजा करने लगे। पूजा करते हुये पाँच वर्ष बीत गये।एक दिन वह ब्राह्मण पूजा के लिये पुष्प लेने गया,तभी उसे एक साँप ने काट लिया ,साँप के काटने से वह ब्राह्मण उस व्याघ्र और हिंसक जीव से घिरे हुये वन में गिर पड़ा।इधर उसकी स्त्री को ब्राह्मण की प्रतीक्षा करते हुये तीन प्रहर बीत गये। तीन प्रहर बीतने के कारण ब्राह्मण की स्त्री चिंता और भय से व्याकुल हो रोती हुई अपने पति को ढ़ूँढ़ने के लिये वन में गई।वन में अपने पति को मृतक के समान गिरे हुये देख वह ब्राह्मणी भी बेहोश हो कर गिर पड़ी। कुछ देर बाद जब उसे होश आया तो वह माता पार्वती की विनती करने लगी।तत्काल हीं माता पार्वती वहाँ प्रकट हुई और ब्राह्मण के मुख में अमृत डालकर उसे जीवित कर दिया। दोनों ब्राह्मण दम्पत्ति ने पार्वती माँ के चरण पकड़ लिये और भक्तिपूर्वक माता पार्वती की पूजा की। पार्वती जी ने कहा- “हे सुव्रते! वर माँगों, मैं तुम्हारे पूजने से प्रसन्न हूँ।” ब्राह्मणी बोली- “हे रुद्राणी! आपकी कृपा से मुझे वांछित मिल गया है।मेरे ह्रदय में सिर्फ इतना ही दु:ख है कि मेरे कोई संतान नहीं है।” पार्वतीजी बोली- “मेरे जया नाम के व्रत को विधिपूर्वक करो । हे सुभगे! वो व्रत तीनो लोकों में परम पवित्र है। जया मेरा ही नाम हैं। हे चारुलोचने! यह आषाढ़ मास में होता है। इस व्रत को भक्ति भाव से बिना नमक के स्वाद हीन अन्न ग्रहण कर करना चाहिये।यह पाँच दिनों का व्रत है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन इस व्रत को प्रारम्भ करके सावन कृष्ण पक्ष की तृतीया तक करना चाहिये। इस व्रत को करने से स्त्रियों को सौभाग्य और संतति की प्राप्ति होती है।” इतना कहकर माँ पार्वती अंतर्ध्यान हो गई। ब्राह्मण दम्पत्ति भी अपने घर को लौट आये। ब्राह्मण की स्त्री ने माता पार्वती के कहे अनुसार जया पार्वती का व्रत विधिपूर्वक किया। इस व्रत के प्रभाव से उसे पुत्र की प्राप्ति हुई। वे दोनों इस लोक के सभी सुख भोगकर शिवलोक को चले गये। जो इस व्रत को करता है , वह पति से कभी भी वियुक्त नहीं होता। इस कथा को सुनने वाला सभी पापों से छूट जाता है।