बुद्ध द्वादशी व्रत कथा
प्राचीन समय की बात है- सत्ययुग में नृग नामसे प्रसिद्ध एक प्रतापी नरेश थे। जिन्हें आखेट का (शिकार) बाड़ा शौक था। अत: प्राय: वे गहन वनों में घूमते रहते थे।
एक समय की बात है, वे घोड़ेपर चढ़कर किसी वन में बहुत दूर चले गये, जहाँ सिंह, बाघ, हाथी, सर्प और डाकुओं का निवास था। राजा नृग के पास इस समय अन्य कोई सहायक भी न था। वे घोड़े को खोलकर एक वृक्ष के नीचे श्रम से थककर सो गये।
इतने में ही रात हो गयी और चौदह हजार व्याधों का एक दल मृगों को मारने के विचार से वहाँ आ गया।
व्याधों ने देखा राजा सोये हैं। उनका शरीर सोने का और रत्नों से सुशोभित है। लक्ष्मी उनके अंग-अंग की शोभा बढ़ा रही हैं।
अत: वे सभी वधिक तुरंत अपने सरदार के पास गये और उसे इसकी सूचना दी।
सुवर्ण और रत्न के लोभ में पड़कर वह सरदार भी राजा नृग को मारने के लिये उद्यत हो गया और वे व्याध हाथ में तलवार लेकर उन सोये हुए राजा के पास पहुँच गये।
वे उन्हें पकड़ना ही चाहते थी कि राजा के शरीर से सहसा चंदन-माल्यादि से विभूषित एक स्त्री प्रकट हो गयी। उसने चक्र उठाकर सभी व्याधों तथा म्लेच्छों को मार डाला।
उनका वध कर वह देवी उसी क्षण पुन: राजा नृग के शरीर में समा गयी। इतने में राजा भी जग गये और देखा कि म्लेच्छ नष्ट हो गये हैं और देवी शरीर में प्रविष्ट हो रही है।
अब राजा घोड़े पर सवार होकर वामदेवजी के आश्रमपर गये और उन्होंने भक्तिपूर्वक उनसे पूछा- भगवन! वह स्त्री कौन थी तथा वे मरे हुए व्याध कौन थे? आप मुझपर प्रसन्न होकर इस आश्चर्यजनक घटना का रहस्य बताने की कृपा कीजिये।
वामदेवजी बोले- राजन! इसके पूर्वजन्म में शूद्रजाति में तुम्हारा जन्म हुआ थ।
उस समय ब्राह्मणों के मुख से तुमने श्रावणमास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी व्रत के अनुष्ठान की बात सुनो और राजन! बड़ी श्रद्धा के साथ विधिपूर्वक तुमने उस दिन उपवास भी किया।
अनघ! उसी का परिणाम है कि इस समय तुम्हें राज्य उपलब्ध हुआ है।
वही द्वादशी देवी सम्पूर्ण आपत्तियों में साकर होकर तुम्हारी रक्षा करती हैं। उसी के प्रयास से ये घोर पापी एवं निर्दयी म्लेच्छ जीवन से हाथ धो बैठे हैं।
राजन! श्रावण मास की यह द्वादशी ही तुम्हारी रक्षिका हैं। इसमें इतनी अपार शक्ति है कि सहसा प्राप्त विपत्ति-काल में भी तुम्हारी रअक्षाहो जाती हैं और इसकी कृपा से तुम्हें राज्य भी सुलभ हो गया है।