श्रीकृष्ण द्वादशी या वसुदेव द्वादशी कथा

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को श्रीकृष्ण द्वादशी व्रत करना चाहिये। इस व्रत का नियम दशमी के दिन से ही शुरु हो जाता है। व्रती को चाहिये की विधिपूर्वक संकल्प कर इस व्रत को करे। दुर्वासा जी कहते हैं- “नियम के साथ इस व्रत को करनेवाले को जो पुण्य प्राप्त होता है , उसे सुनो-
यदुवंश में वसुदेव नामक एक श्रेष्ठ कुशल पुरुष हुए हैं। उनकी पत्नी का नाम दएवकी था। देवकी पति के साथ-ही-साथ सभी व्रतों का अनुष्ठान करती थी। साथ हीं वे पातिव्रत-धर्मका पालन भी पूर्णरूप से पालन करती थीं। परन्तु उनके पुत्र नहीं था।बहुत समय व्यतीत होने पर एक दिन नारद जी वसुदेव जी से मिलने आये।उन्होंने भक्तिपूर्वक मुनि की पूजा की। फिर नारदजी ने कहा- “वसुदेव! मैं यहाँ देवताओं से सम्बंधित एक कार्य बताता हूँ, उसे सुनो। अनघ!मैंने स्वयं देखा है, देवताओं की सभा में जाकर पृथ्वी ने कहा है- देवताओ! अब मैं भार ढ़ोने में असमर्थ हो गयी हूँ।दुर्जन दल बाँध कर मुझे दु:ख दे रहे हैं। अत: आपलोग उनका संहार करें।”
इस प्रकार पृथ्वी के कहनेपर देवताओं ने भगवान् नारायण का ध्यान किया।दह्यान करते हीं भगवान श्रीहरिने उनके सामने प्रकट होकर कहा-‘देवताओं! यह कार्य मैं स्वयं करने के लिये उद्यत हूँ, इसमें कोई संशय नहीं है। मैं मनुष्य के रूप में मर्त्यलोक में जाऊँग, किंतु जो स्त्री अपने पति के साथ आषाढ़ मास के शुक्ल पक्षकी द्वादशी व्रतका अनुष्ठान करेगी, मैं उसी के गर्भ में निवास करूँगा।’
भगवान श्रीहरि के ऐसा कहने पर देवता तो अपने स्थान को चले गये, पर म ैं(नारद) यहाँ आ गया हूँ। मेरे आने का विशेष कारण यह है कि आपकी कोई संतान (जीवित) नहीं है। अत: आपको यह बतला दूँ। इसी द्वादशीव्रत के करने से वसुदेवजी को श्रीकृष्ण-जैसे पुत्र की प्राप्ति हुई । साथ ही उन यदुश्रेष्ठको विशाल वैभव भी प्राप्त हो गया। जीवन में सुख भोगकर अंत में वे भगवान श्रीहरि के परम धाम को गये। मुने! आषाढ़मास में होनेवाली द्वादशीव्रत की विधि मैंने तुम्हें बतला दी।