कांचनपुरी व्रत विधि | Kanchan Vrat Vidhi

यह कांचनपुरी-व्रत किसी महीने में शुक्ल या कृष्ण पक्ष की तृतीया, एकादशी, पूर्णिमा, संक्रान्ति, अमावस्या तथा अष्टमी को उपवासपूर्वक किया जा सकता है | इस व्रतमें कंचन अर्थात् सोने का महल बनाकर, उसमें सोने के लक्ष्मीसहितनारायण की प्रतिमा को रखकर दान किया जाता है। इस व्रत को करने से रुप तथा सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इस व्रतको करनेवाला सभी कष्टों से मुक्त होकर साम्राज्य-लाभ करता है | यह व्रत स्वर्ग और मोक्ष को प्रदान करनेवाला है |

कांचनपुरीव्रत विधि एवं महात्म्य

भगवान् श्रीकृष्ण कहते है – महाराज ! एक बार विश्व के उत्पत्ति, पालन और संहारकारक अक्षर पुरुषोत्तम भगवान विष्णु श्वेतद्वीप में सुखपूर्वक बैठे हुए थे | उसीसमय जगन्माता लक्ष्मी ने उनके चरणों में पंचाग प्रणाम कर उनसे पूछा – ‘भगवन! आप भक्तोपर अनुकम्पा करनेवाले है | महाभाग ! मुझपर भी दया करके आप कोई ऐसा रूप-सौभग्यदायक सर्वोत्तम व्रत बतलाये, जिसके आचरण से समस्त तीर्थ आदि पुण्य कर्मों का फल प्राप्त हो जाय |’

भगवान् विष्णु बोले – देवि ! जिस प्रकार आश्रमों में गृहस्थाश्रम, वर्णों में ब्राह्मण, नदियों में गंगा, जलाशयों में समुद्र, देवताओं में विष्णु (मैं) तथा स्त्रियों में तुम (लक्ष्मी) श्रेष्ठ हो, उसी प्रकार व्रतों में कांचनपुरी व्रत उत्तम है | इस व्रत का पहले भगवती पार्वती ने भगवान् शंकर के साथ अनुष्ठान किया था | सीताजी ने भी भगवान् श्रीराम के साथ इसी व्रतका पालन कर अखंड साम्राज्य प्राप्त किया था | दमयन्ती के वियोग में राजा नल ने भी इस व्रत को किया था | वनवासी पांडवों ने भी द्रौपदी के साथ इस व्रत का आचरण किया और सभी कष्टों से मुक्त होकर साम्राज्य-लाभ किया | भद्रे ! यह व्रत स्वर्ग और मोक्ष को प्रदान करनेवाला है | रम्भा, मेनका, इन्द्राणी (शची) सत्यभामा, शाण्डिली, अरुंधती, उर्वशी तथा देवदत्ता आदि श्रेष्ठ स्रियों ने इस व्रत का आचरण करके सौभाग्य, सुख और अपने मनोरथ प्राप्त किये थे | पाताल में नागकन्याओं ने और गायत्री, सरस्वती एवं सावित्री आदि उत्तम देवियों तथा अन्य नारियों ने सभी कामनाओं की पूर्ति की अभिलाषा से इस व्रत का अनुष्ठान किया था | यह व्रत सभी प्रकार के दु:खों का नाशक, प्रीतिवर्धक तथा व्रतों में उत्तम है, इसलिये इस व्रत का मैं वर्णन कर रहा हूँ | इसके अनुष्ठान से ब्रह्महत्या आदि महापातकों के करनेवाले, तौल-माप में कमी करनेवाले, कन्या बेचने वाले, गौ बेचनेवाले, अगम्यागमन में लिप्त, मांस भक्षी, जारजपुत्र के यहाँ भोजन करने वाले, भूमिका हरण करने वाले आदि पापकर्मी भी पापों से नि:संदेह मुक्त हो जाते हैं | इसकी विधि इस प्रकार है –देवि ! यह कांचनपुरी-व्रत किसी महीने में शुक्ल या कृष्ण पक्ष की तृतीया, एकादशी, पूर्णिमा, संक्रान्ति, अमावस्या तथा अष्टमी को उपवासपूर्वक किया जा सकता है | व्रती इस दिन कांचनपुरी बनवाकर दान करे | वह पुर्वाह्र में नदी आदि के शुद्ध निर्मल जल में स्नान करें | पहले मन्त्रपूर्वक पवित्र मृत्तिका ग्रहणकर उसे शरीर में लगाये फिर जल में गोते लगाये | इस विधि से स्नान कर शुद्धात्मा व्रती अपने घर आये और उस दिन किसी पाखंडी, विधर्मी, धूर्त, शठ आदि से वार्तालाप न करे | अपना हाथ-पैर धोकर पवित्र हो आचमन करे | एक उत्तम जल से भरा स्वर्णयुक्त शंख लेकर उस जल को द्वादशाक्षर-मन्त्र से अभिमंत्रित कर ‘हरि’ इस मन्त्र का जप कर जल पी ले | शमीवृक्ष से चार स्तभों से युक्त एक वेदी बनाये जो चार हाथ प्रमाण की हो | वेदी को पुष्पमाला, वितान, दिव्य धूप आदिसे आधिवासित और अलंकृत कर ले | वेदी के मध्य में एक पद्म की रचना करे | मंडल के बीच में सुंदर एक भद्रपीठ का निर्माण कराये | भद्रपीठ के ऊपर सुंदर आसनपर लक्ष्मी के साथ भगवान् जनार्दन की स्थापना करे | मंडल के अग्र भाग में जलपूर्ण कलश की स्थापना कर उसमें क्षीरसागर की कल्पना करे | कलशपर चार पल, दो पल अथवा एक पल की कांचनपुरी की स्वर्णमयी प्रतिमा बनाकर स्थापित करे | उसके आगे कदली-स्तंभ और तोरण लगाये | फिर ब्राह्मणों द्वारा उसकी प्रतिष्ठा कराये |

उस पूरी के मध्य में विष्णुसंहित लक्ष्मी की सुवर्णमय प्रतिमा की स्थापना करनी चाहिये | पंचामृत से देवेश नारायण तथा लक्ष्मी को स्नान कराकर मन्त्रों का उच्चारण करते हुए चन्दन, पुष्प आदि उपचारोंद्वारा उनका पूजन करना चाहिये | इन्द्रादि लोकपालों की पूजा भी यथाक्रम से करनी चाहिये | विघ्न निवारण के लिये गणपति तथा नवग्रहों का पूजन कर हवन करना चाहिये | तत्पश्चात पायस, सोहाल, फेनी, मोदक आदि का नैवेद्य अर्पितकर देश-काल के अनुसार फल भी अर्पण करना चाहिये | दस दिशाओं में दस-घृतपूरित दीपक प्रज्वलित करे | पुष्पमाला, चन्दन आदि भी चढ़ाये, साथ ही विष्णुस्तवराज, पुरुषसूक्त आदि का पाठ करे | सोलह सपत्निक ब्राह्मणों में लक्ष्मी-विष्णु की भावना कर पूजा करे | अंत में पूजित सभी पदार्थ उन्हें निवेदित कर प्रार्थना करे कि ‘ब्राह्मण देवता ! भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हो जायँ |’ शय्या-दान तथा गो-दान भी करे | जो कांचनपुरी आदि की प्रतिमा पूजित की गयी है , उसे वस्त्र से आच्छादित अपने नेत्रों को वस्त्र से ढ़ककर दीप के साथ मंडप में ले आये और आचार्य से कहे – ‘आप सभी कामनाओं को देनेवाली एवं दुःख-दुर्भाग्य को दूर करनेवाली इस रमणीय कांचनपुरी का दर्शन करें |’
अनन्तर व्रती नेत्र के वस्त्र को खोलकर गुरु के सम्मुख पुष्पांजलि देकर उस शुभ पुरी का दर्शन करे। तदनंतर चाँदी, ताँबे अथवा किसी शंख में पञ्चरत्न, गंगाजल ,फल, सरसों, अक्षत, रोचना तथा दहीमिश्रित अर्घ्य बनाकर भगवान श्रीविष्णु को प्रदान करे और प्रार्थना करे – ‘सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले भगवान् लक्ष्मीनारायण ! आप इस सुवर्णपूरी के प्रदान करने से मनोवांछित फल पूर्ण करे | नारायण ! लक्ष्मीकांत ! जगन्नाथ ! आप इस अर्घ्य को ग्रहण करे, आपको नमस्कार है |’
इस प्रकार महातेजस्वी भगवान विष्णु को अर्घ्य देकर भक्तिपूर्वक देवी लक्ष्मी को भी अर्घ्य प्रदान करना चाहिये और कहना चाहिये कि ‘देवि ! आप ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, पार्वती एवं भगवान् कार्तिकेय से पूजित है | धर्म की कामना से मेरे द्वारा भी आप पूजित है, आप मुझे सौभाग्य, पुत्र, धन, पौत्र प्रदान करें | देवि ! आप मेरे द्वारा प्रदत्त इस अर्घ्य को ग्रहण कर मुझे सुख प्रदान करे |’ इसप्रकार व्रत को पूर्णकर रात्रि में जागरण करे, निद्रारहित होकर जागरण करने से सौ यज्ञों का फल प्राप्त होता है | प्रात:काल निर्मल जल से स्नान कर पितर और देवताओं की पूजा कर सप्त्नीक ब्राह्मणों को वस्त्र देकर भोजन कराये और यथाशक्ति दक्षिणा प्रदान कर क्षमा-याचना करे। दीन, अंध, बधिर, पंगु आदि सबको संतुष्ट करे। अनन्तर पारण करे। तदनन्तर मधुर पायसयुक्त व्यञ्जनों से मित्र और बान्धवों के साथ भोजन करे। ऐसा करने से व्रती ब्रह्मलोक को प्राप्त कर ब्रह्मा के साथ आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है | अनन्तर रूद्रलोक, उसके बाद विष्णुलोक को प्राप्त करता है | देवि ! कांचनपुरी नामक यह व्रत पूर्वसमय में तुमने भी किया था , उसी पुण्य के प्रभाव से त्रैलोक्यपूजित मुझे स्वामी के रूप में तुमने प्राप्त किया हैं |