आश्विन (क्वार) गणेश चतुर्थी व्रत कथा- (संकठा चतुर्थी)

अपनी सखी की बात सुनकर चित्रलेखा अनेक स्थानों में खोज करती हुई द्वारकापुरी में आ पहुँची। वहाँ अनिरुद्ध को पहचान कर उसने उसका अपहरण कर लिया, क्योंकि वह राक्षसी माया जानने वाली थी।
रात्रि में पलंग सहित अनिरुद्ध को उठाकर वह गोधूलि वेला में बाणासुर की नगरी में प्रविष्ट हुई।
इधर प्रद्युम्न को पुत्र शोक के कारण असाध्य रोग से ग्रसित होना पड़ा। अपने पुत्र प्रद्युम्न एवं पौत्र अनिरुद्ध की घटना से कृष्ण जी भी विकल हो उठे। रुक्मिणी भी पौत्र के दुख से दुखी होकर बिलखने लगी।
पतिव्रता रुक्मिणी खिन्न मन से कृष्ण जी से कहने लगी कि हे नाथ ! हमारे प्रिय पौत्र का किसने हरण कर लिया? अथवा वह अपनी इच्छा से ही कहीं गया है। मैं आपके सामने शोकाकुल हो अपने प्राण छोड़ दूँगी।
रुक्मिणी की ऐसी बात सुनकर श्रीकृष्ण जी यादवों सभा में उपस्थित हुए। वहाँ उन्होंने परम तेजस्वी लोमश ऋषि के दर्शन किए। उन्हें प्रणाम कर श्रीकृष्ण ने सारी घटना कह सुनाई।

श्रीकृष्ण ने लोमश ऋषि से पूछा कि मुनिवर!हमारे पौत्र को कौन ले गया? वह कहीं स्वयं तो नहीं चला गया है? हमारे बुद्धिमान पौत्र का किसने अपहरण कर लिया , यह बात मैं नहीं जानता हूँ। उसकी माता पुत्र वियोग के कारण बहुत दुखी है।
श्रीकृष्ण जी की बात सुनकर लोमश मुनि ने कहा- महर्षि लोमश जी ने कहा कि हे कृष्ण ! बाणासुर की कन्या उषा की सहेली चित्रल्रेखा ने आपके पौत्र का हरण किया है और उसे बाणासुर के महल में छिपाकर रखा है।
यह बात नारद जी ने बताई है। आप आश्विन मास के कृष्ण चतुर्थी संकटा का अनुष्ठान किजिये। इस व्रत के करने से आपका पौत्र अवश्य ही आ जएग। ऐसा कहकर मुनिवर वन में चले गये।
उन्होंने संकटा व्रत करने का उपदेश दिया। श्रीकृष्ण जी ने लोमश ऋषि के कथनानुसार व्रत किया।
हे देवी! इस व्रत के प्रभाव से उन्होंने अपने शत्रु बाणासुर को पराजित कर दिया। यद्यपि उस भीषण युद्ध में मेरे पिताजी (शिवजी) ने बाणासुर की बड़ी रक्षा की फिर भी वह परास्त हो गया।
भगवान कृष्ण ने कुपित होकर बाणासुर की सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। ऐसी सफलता मिलने का कारण व्रत का प्रभाव ही था। श्री गणेश जी को प्रसन्न करने तथा सम्पूर्ण विघ्न को शमन करने के लिए इस व्रत के समान दूसरा कोई व्रत नहीं है। विश्व-भ्रमण तथा तीर्थ-भ्रमण के निमित्त इससे बढ़कर शुभदायक व्रत दूसरा नहीं है।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे राजन! सम्पूर्ण विपत्तियों के विनाशार्थ इस व्रत को अवश्य ही करना चाहिए। इसके प्रभाव से शत्रुओं पर आप विजय लाभ करेंगे एवं राज्याधिकारी होंगे।
इस व्रत के महात्म्य का वर्णन बड़े- बड़े विद्वान भी नहीं कर सकते । हे पृथा (कुन्ती) तनय ! मैंने इसका स्वयं अनुभव किया है, यह मैं आपसे सत्य कह रहा हूँ।