Krishna Janmashtami - कृष्ण जन्माष्टमी

भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था। इसी के उपलक्ष्य में कृष्ण जन्माष्टमी मनाने का प्रचलन है। भगवान श्री कृष्ण को पूर्णावतार माना गया है क्योंकि वे मानव जीवन के सभी चक्रों ( जन्म, मृत्यु, शोक, खुशी ) से होकर अपने मानव रूप में गुजरे हुए हैं।
भगवान कृष्ण को देवकी ने मथुरा के कंस कारागृह में जन्म दिया था, लेकिन वासुदेव जी ने उन्हें टोकरी में रखकर नंदगाँव में बाबा नंद और माता यशोदा के पास पहुँचा दिया था, जहाँ श्री कृष्ण जी का लालन-पालन हुआ।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी व्रत कब करें ?

अष्टमी श्रावणे मासि कृष्ण पक्षे यदा भवेत्।
कृष्णजन्माष्टमी ज्ञेया महापातक नाशिनी॥

“ व्रते शुक्लादिरेव च ” इस वचन के अनुसार श्रावण शब्द से भाद्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी कृष्ण जन्माष्टमी मानी जाती है। इसके दो प्रकार है- 1. कृष्णजन्माष्टमी, 2. कृष्णजयंती। केवल अष्टमी जन्माष्टमी तथा रोहिणी पुता जयंती कहलाती है।
यदि पहले दिन अर्धरात्रिव्यापिनी हो और दूसरे दिन रोहिणी हो किंतु अर्धरात्रि में ना हो,तो पहले ही दइन व्रत करना कहाहिये। कृष्ण जयन्ती व्रत में रोहिणी का विशेष माहात्म्य होने से अर्ध्रात्रि में ना होने पर दूसरे ही दिन व्रत होगा। जब रोहिणी का योग किसी वर्ष इस अष्टमी को ना मिले तो जन्माष्टमी व्रत एक ही होगा।

एक बार इंद्र ने नारदमुनि से कहा – हे ब्रहपुत्र! हे मुनिश्रेष्ठ! हे सर्वशास्त्र विशारद ! हे देव ! व्रतों में उत्तम उस व्रत को कहिये जिससे प्राणी सांसारिक दु:खों से मुक्त हो जायें और हे ब्राह्मण ! उस व्रत को कहिये जो ऐश्वर्य और मोक्ष को देनेवाला हो । नारद ने कहा- “ हे देव ! भाद्रपद मास की कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करने से ऐश्वर्य और मोक्ष की प्राप्ति होती है। तथा इसे व्रत को करने वाले की आयु, किर्ति, यश, लाभ, पुत्र और पौत्रों की वृद्धि होती है और वह इसी जन्म में सब प्रकार के सुखों को भोगकर अंत में मोक्ष पद का अधिकारी हो जाता है । जो लोग केवल भक्तिभाव से कथा सुनते हैं उन लोगों का भी पाप छूट जाता है और वे उत्तम गति को प्राप्त कर लेते हैं।” तब इंद्र देव ने कहा कि हे मुनिश्रेष्ठ कृप्या कर इस व्रत कि विधि तथा कथा विस्तार से बतायें। नारद जी बोले – “भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष के अष्टमी तिथि को यह व्रत करें। इसमें ब्रह्मचर्य आदि का पालन करते हुए भगवान श्री कृष्ण की स्थापना करें। श्री कृष्ण की मूर्ति को स्थापित करें, कलश के ऊपर चंदन, अगर, धूप, पुष्पों से विधिवत् अर्चन करें। विष्णु जी के दश रूपों की तथा देवकी की स्थापना करें। हरि की सन्निधि में – मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिन्ह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बौद्ध और कल्कि ये दस, गोपिका, यशोदा, वसुदेव, नंद, बलदेव, देवकी, गौवें, वत्स, कालिया, यमुना नदी, गोपगण और गोप-पुत्रगणों का पूजन करें तथा कथा सुनें।यह व्रत आठ वर्ष तक करें । आठवें वर्ष की समाप्ति पर उद्यापन करें। अपनी शक्ति के अनुसार दान करें।

janmashtami bhog - √ " कृष्णा जन्माष्टमी के प्रसाद की विधि ⇒.

पूजन सामग्री

1. चौकी
2. लाल वस्त्र (चौकी पर बिछने के लिये)
3. श्री कृष्ण की मूर्ति बाल रूप वाला
4. गंगाजल
5. मिट्टी का दीपक
6. घी
7. रूई की बत्ती
8. धूप
9. चन्दन
10. रोली
11. अक्षत (साबुत चावल को सात बार धो कर सुखायें )
12. तुलसी
13. पंचामृत ( दूध,दही,घी,शहद,शक्कर का मिश्रण)
14. मक्खन
15. मिश्री
16. मिष्ठान/नैवैद्य
17. फल
18. भगवान की पोशाक
19. श्रृंगार की सामग्री( मुकुट,मोतियों की माला,बाँसुरी,मोर पंख,पायल )
20. इत्र
21. फूलमाला
22. फूल
23. पालना

पूजन विधि

व्रत के दिन सुबह उठकर अपने नित्य कर्म से निवृत होकर माता देवकी के लिये सूतिका गृह बनायें । इस सूतिका गृह में माता देवकी सहित बाल गोपाल की मूर्ति स्थापित करें और पूजा करें। सारे दिन उपवास रखकर विधिपूर्वक आधीरात को भगवान श्री कृष्ण की पूजा करनी चाहिये। और नवमी के दिन पारण करना अथवा व्रत खोलना चाहिये। जो भी मनुष्य जन्माष्टमी का व्रत करता है तथा कथा सुनता है उसके सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और वह वैकुण्ठ धाम पाता है।
साधक रात्री के 11 बजे दुबारा से स्नान कर पवित्र हो ले। उसके बाद पूजा गृह में पूर्व दिशा की ओर सभी सामग्री एकत्रित कर ले। सबसे पहले पालने को अच्छी तरह फूलों से सजा ले। चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर श्री कृष्ण की मूर्ति स्थापित करे।

ध्यान :-
साधक अपने दोनों हाथ जोड़कर भगवान श्री कृष्ण के बाल रूप का ध्यान करें तथा निम्न मंत्र का उच्चारण करें
ॐ तमद्भुतं बालकम् अम्बुजेक्षणम्।, चतुर्भुज शंख गदाद्युधायुदम्।
श्री वत्स लक्ष्मम्। गल शोभि कौस्तुभं,पीतम्बरम् सांद्र पयोद सौभगं॥
महार्ह वैढ़ूर्य किरीटकुण्डल त्विशा परिष्वक्त सहस्त्रकुण्डलम्।
उद्धम कांचनगदा कङ्गणादिभिर् विरोचमानं वसुदेव ऐक्षते।
ध्यायेत चतुर्भुजं कृष्णं,शंख चक्र गदाधरम्।
पीताम्बरधरं देवं माला कौस्तुभभूषितम्।
ॐ श्री कृष्णाय नम:। ॐ श्री वासुदेवाय नम:

आवाहन :-
अब दोनों हाथ जोड़कर भगवान श्री कृष्ण का आवाहन करते हुए मंत्र उच्चारित करें –
सहस्त्र शीर्षाः पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्र-पातस-भूमिग्वं सव्वेत-सत्पुत्वायतिष्ठ दर्शागुलाम् |
आगच्छ श्री कृष्ण देवः स्थाने-चात्र सिथरो भव ||
ॐ श्री क्लीं कृष्णाय नम:। बंधु-बांधव सहित श्री बालकृष्ण आवाहयामि॥

आसन :-
अब आसन मंत्र को पढ़ते हुए आसन के लिये फूल अर्पित करें :-
ॐ विचित्र रत्न-खचितं दिव्या-स्तरण-सन्युक्तम् |
स्वर्ण-सिन्हासन चारू गृहिश्व भगवन् कृष्ण पूजितः ||
ॐ श्री कृष्णाय नम:। आसनम् समर्पयामि॥

पाद्य :-
भगवान के पाँव को धुलने के लिये पंचपात्र से जल लेकर समर्पित करें –
एतावानस्य महिमा अतो ज्यायागंश्र्च पुरुष:।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥
अच्युतानन्द गोविंद प्रणतार्ति विनाशन ।
पाहि मां पुण्डरीकाक्ष प्रसीद पुरुषोत्तम्॥
ॐ श्री कृष्णाय नम:। पादोयो पाद्यम् समर्पयामि॥

अर्घ्य –
अब अर्घ्य के लिये जल समर्पण करें –
ॐ पालनकर्ता नमस्ते-स्तु गृहाण करूणाकरः ||
अर्घ्य च फ़लं संयुक्तं गन्धमाल्या-क्षतैयुतम् ||
ॐ श्री कृष्णाय नम:। अर्घ्यम् समर्पयामि॥

आचमन-
अब आचमन के लिये जल समर्पित करें-
तस्माद्विराडजायत विराजो अधि पुरुष:।
स जातो अत्यरिच्यत पश्र्चाद्भूमिनथो पुर:॥
नम: सत्याय शुद्धाय नित्याय ज्ञान रूपिणे।
गृहाणाचमनं कृष्ण सर्व लोकैक नायक॥
ॐ श्री कृष्णाय नम:। आचमनीयं समर्पयामि॥

स्नान-
अब एक बड़ा कटोरा लें और उसमें भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति को रखें। सर्वप्रथम जल से श्री कृष्ण को स्नान करायें। उसके बाद दूध,दही,मक्खन,घी तथा शहद से स्नान करायें। एक बार फिर से शुद्ध जल से स्नान करायें ।
गंगा गोदावरी रेवा पयोष्णी यमुना तथा ।
सरस्वत्यादि तिर्थानि स्नानार्थं प्रतिगृहृताम् ॥
ॐ श्री कृष्णाय नम:। स्नानं समर्पयामि॥

वस्त्र-
अब भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति को सुखे कपड़े से पोछकर वस्त्र पहनायें ।और पालने में रखें ।
शति-वातोष्ण-सन्त्राणं लज्जाया रक्षणं परम् |
देहा-लंकारणं वस्त्रमतः शान्ति प्रयच्छ में ||
ॐ श्री कृष्णाय नम:। वस्त्रयुग्मं समर्पयामि॥

यज्ञोपवीत-
भगवान श्री कृष्ण को यज्ञोपवीत अर्पण करें -
नव-भिस्तन्तु-भिर्यक्तं त्रिगुणं देवता मयम् |
उपवीतं मया दत्तं गृहाण परमेश्वरः ||
ॐ श्री कृष्णाय नम:। यज्ञोपवीतम् समर्पयामि॥

चंदन –
अब हाथ में चंदन लेकर अर्पित करें-
ॐ श्रीखण्ड-चन्दनं दिव्यं गंधाढ़्यं सुमनोहरम् |
विलेपन श्री कृष्ण चन्दनं प्रतिगृहयन्ताम् ||
ॐ श्री कृष्णाय नम:। चंदनम् समर्पयामि॥

गन्ध –
इस मंत्र के द्वारा गंध धूप दिखायें -
वनस्पति रसोद भूतो गन्धाढ़्यो गन्ध उत्तमः |
आघ्रेयः सर्व देवानां धूपोढ़्यं प्रतिगृहयन्ताम् ||
ॐ श्री कृष्णाय नम:। गंधम् समर्पयामि॥

दीप –
अब घी का दीपक जला कर भगवान को समर्पित करें-
साज्यं त्रिवर्ति सम्युकतं वह्निना योजितुम् मया।
गृहाण मंगल दीपं,त्रैलोक्य तिमिरापहम्
भक्तया दीपं प्रयश्र्चामि देवाय परमात्मने।
त्राहि मां नरकात् घोरात् दीपं ज्योतिर्नमोस्तुते॥
ब्राह्मणोस्य मुखमासीत् बाहू राजन्य: कृत:।
उरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥
ॐ श्री कृष्णाय नम:। दीपं समर्पयामि॥

नैवैद्य-
भगवान को भोग लगायें ।
शर्करा-खण्ड-खाद्यानि दधि-क्षीर-घृतानि च
आहारो भक्ष्य- भोज्यं च नैवैद्यं प्रति- गृहृताम॥
ॐ श्री कृष्णाय नम:। नैवद्यं समर्पयामि॥

ताम्बूल-
अब पान के पत्ते को उलट कर उस पा लौंग-ईलायची, सुपारी तथा कुछ मीठा रखकर ताम्बूल बनायें और बाल कृष्ण को समर्पित करें।
ॐ पूंगीफ़लं महादिव्यं नागवल्ली दलैर्युतम् |
एला-चूर्णादि संयुक्तं ताम्बुलं प्रतिगृहृताम॥
ॐ श्री कृष्णाय नम:। ताम्बुलं समर्पयामि॥

दक्षिणा
अब अपने सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा समर्पित करें –
हिरण्य गर्भ गर्भस्थ हेमबीज विभावसो:।
अनन्त पुण्य फलदा अथ: शान्तिं प्रयच्छ मे॥
ॐ श्री कृष्णाय नम:। दक्षिणां समर्पयामि॥

आरती –
आरती युगलकिशोर की कीजै, राधे धन न्यौछावर कीजै।
रवि शशि कोटि बदन की शोभा, ताहि निरिख मेरो मन लोभा ॥
॥ आरती युगलकिशोर….॥
गौरश्याम मुख निरखत रीझै, प्रभु को रुप नयन भर पीजै॥
॥ आरती युगलकिशोर….॥
कंचन थार कपूर की बाती . हरी आए निर्मल भई छाती॥
॥ आरती युगलकिशोर….॥
फूलन की सेज फूलन की माला . रत्न सिंहासन बैठे नंदलाला॥
॥ आरती युगलकिशोर….॥
मोर मुकुट कर मुरली सोहै,नटवर वेष देख मन मोहै॥
॥ आरती युगलकिशोर….॥
ओढे नील पीट पट सारी . कुंजबिहारी गिरिवर धारी॥
॥ आरती युगलकिशोर….॥
श्री पुरषोत्तम गिरिवरधारी. आरती करत सकल ब्रजनारी॥
॥ आरती युगलकिशोर….॥
नन्द -नंदन ब्रजभान किशोरी . परमानन्द स्वामी अविचल जोरी॥
॥ आरती युगलकिशोर….॥

जन्माष्टमी व्रत कथा

त्रेतायुग के अंत तथा द्वापर के प्रारम्भ काल में नीच कर्मों को करने वाला अत्यंत पापी ‘ कंस ’ नामक दैत्य उत्पन्न हुआ। उसकी बहन का नाम देवकी था । एक बार उस दुरात्मा पापी दैत्य कंस ने ज्योतिषी से पूछा- “ हे विप्र ! मेरी मृत्यु किस प्रकार से होगी ?” ज्योतिषी ने कहा- “हे दानवाधीश ! यादवेंद्र वसुदेव की पत्नी देवकी , जो की आपकी बहन है, उसके आठवे पुत्र के द्वारा ही आपकी मृत्यु होगी ।” कंस ने कहा- “ हे दैवज्ञ ! हे बुद्धिमानों मे श्रेष्ठ ! विचार पूर्वक कहिए किस मास , किस दिन और किस समय में मुझे मार डालेगा ?” ज्योतिषी ने कहा- “ हे दानेश्वर ! माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को महात्मा कृष्ण के साथ तुम्हारा भयंकर संग्राम होगा। उसी संग्राम में तुम्हें जीत कर वह मार डालेगा। इसलिये हे कंस ! तुम अपनी रक्षा का प्रयत्न करो । ” नारद जी ने कहा- हे देवराज ! ज्योतिषी द्वारा इस प्रकार बताने पर कंस बहुत चिंतित हुआ । और उसने सैनिकों को आदेश दिया कि देवकी तथा वासुदेव को कारागृह में बंदी बना लिया जाये। देवकी तथा वासुदेव के जैसे हीं कोई संतान होती, कंस के द्वारपाल उसे सूचना दे देते और वह आकर नवजात बच्चे को पत्थर पर पटक कर मार डालता। धीरे-धीरे उसने देवकी और वासुदेव के सात पुत्रों को मार डाला। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मण्डल के जलधारी मेघों से घिर जाने पर, भाद्रपद महीने में कृष्ण पक्ष की अष्टमी में आधी रात को वृष राशि चंद्रमा में,रोहिणी नक्षत्र में,बुध्वार में सौभाग्य योग से सन्युक्त चंद्रमा अर्ध रात्रि में उदय होने पर, आधी रात के उत्तर एक घड़ी ,इस शुभ मुहुर्त में श्री कृष्ण का जन्म हुआ । श्री कृष्ण के जन्म लेते हीं सारे दैत्य मूर्छित हो गये , सारे द्वार खुल गये और वासुदेव की बेड़ियाँ भी अपने आप खुल गयी। तभी आकाशवाणी हुई कि हे वासुदेव, नंदगाँव में नंदबाबा की स्त्री ने एक पुत्री को जन्म दिया है, तुम अपने पुत्र को उस पुत्री से बदल लो तभी तुम्हारे पुत्र की जान बच सकती है। ऐसा सुनते हीं वासुदेव ने श्री कृष्ण को एक टोकरी में रखकर यमुना पार नंदगाँव चल दिये उस अंधेरी रात में ऐसा प्रतीत होता था जैसे यमुना आज सभी कुछ बहा ले जायेगी । तभी श्री कृष्ण ने अपने पैर का स्पर्श यमुना के जल को कराया। पैर के जल से स्पर्श होते हीं यमुना बिल्कुल शांत हो गयी। वासुदेव जी ने नदी पार कर ,यशोदा की पुत्री से अपने पुत्र बदल कर शीघ्र लौट आये। वसुदेव ने देवकी को कन्या अर्पण कर दी। तभी कन्या जोर-जोर से रोने लगी और कन्या के रूदन से सभी सैनिक और दैत्य जाग उठे । उन्होंने शीघ्र हीं कंस को सूचना दी कि देवकी ने एक कन्या को जन्म दिया है । उसी क्षण कंस कारागृह में आया और उसने देवकी से उस कन्या को छीन लिया । कंस ने जैसे ही उस कन्या को पटकना चाहा कि वह कन्या कंस के हाथ से छूटकर आकाश में जा पहुँची और उसने कहा- “दुष्ट कंस तुम्हारा काल विष्णु जी के अवतार तो जन्म लेकर नंदबाबा के पास नंदगाँव पहुँच चुका है। मेरा नाम वैष्णवी है और मैं उसी जगद्गुरु विष्णु की माया हूँ।” इतना कहकर वह अंतर्ध्यान हो गयी। तत्पश्चात् कंस ने पूतना को बुलाया और उसे आदेश दिया कि ,मेरा काल जो नंदगोप के घर में पल रहा है, उसे जान से मार दे। कंस की आज्ञा पाकर पूतना ने एक अत्यंत सुंदर स्त्री का रूप धारण किया और नंदबाबाके घर पहुँच गयी। उसने मौका देखकर कृष्ण को उठा लिया और अपना दूध पिलाने लगी।स्तनपान करते हुए कृष्ण ने उसके प्राण भी हर लिये ।पूतना के मृत्यु की खबर सुनने के बाद कंस और भी चिंतित हो गया। इस बार उसने केशी नामक अश्व दैत्य को कृष्ण को मारने के लिये भेजा।कृष्ण ने उसके ऊपर चढ़कर उसे यमलोक पहुँचा दिया।फिर कंस ने अरिष्ट नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा।कृष्ण अपने बाल रूप में क्रीड़ा कर रहे थे।खेलते –खेलते ही उन्होंने उस दैत्य रूपी बैल के सीगों को क्षण भर में तोड़ कर उसे मार डाला। फिर दानव कंस ने ‘ काल ’ नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा। वह ज्यों ही मारने की इच्छा से कृष्ण के समीप आया । श्रीकृष्णने कौवे को पकड़कर उसके गले को दबोचकर मसल दिया और उसकेपंखों को अपने हाथों से उखाड़ दिया जिससे काल नामक असुर मारा गया। एक दिन श्री कृष्ण यमुना नदी के तट पर गेंद खेल रहे थे तभी उनसे गेंद नदी में जा गिरी और सभी गोप के कहने पर वे गेंद लाने के लिये नदी में कूद पड़े । इधर यशोदा को जैसे हीं खबर मिली वह भागती हुई यमुना नदी के तट पर पहुँची और विलाप कर कहने लगी – “ हे यमुने नदी ! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत करूंगी । जिस प्रकार दानों में दया का दान दुरलभ है, मनुष्य में सज्जन दुरलभ हैं, ब्राह्मण वंश में जन्म लेना दुरलभ है,ऐसे ही रोहिणी युक्त अष्टमी व्रत भी दुर्लभ है। हजारों अश्वमेघ यज्ञ सैंकड़ों राजसूय यज्ञ , सैकड़ों दान तीर्थ और व्रत तथा करोड़ों यज्ञ करने से ,करोड़ों कपिला दान देने से जो फल मिलताहै वह इस रोहिणी अष्टमी से प्राप्त होता है। ” इंद्रने कहा- हे मुनिश्रेष्ठ नारद ! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालक कृष्ण ने क्या किया ? वह सब मुझे विस्तार से बताईये ।नारद ने कहा- “ हे इंद्र ! वहां पर उस बालक कृष्ण और नागराज के बीच जो कुछ हुआ वह सुनो । ” श्री कृष्ण जब पाताल लोक पहुँचे तो नागराज की पत्नी ने कहा- हे भद्र ! यहां पर किस स्थान से और किस प्रयोजन से आये हो यदि मेरे पति नागराज कालिया जग गये तो वे तुम्हें भक्षण कर जायेंगे।तब कृष्ण ने कहा मैं कालिया नाग का काल हूँ और उसे मार कर इस यमुना नदी को पवित्र करने के लिये यहां आया हूँ । ऐसा सुनते हीं कालिया नाग सोते से उठा और श्री कृष्ण से युद्ध करने लगा । जब कालिया नाग पूरी तरह मरनासन्न हो गया तभी उसकी पत्नी वहां पर आई और अप्ने पति के प्राणों की रक्षा के लिये कृष्ण की स्तुति करने लगी – “ हे भगवन ! मैं आप भुवनेश्वर क्र्ष्ण को नहीं पहचान पाई । हे जनाद ! मैं मंत्रों से रहित, क्रियाओं से रहित और भक्ति भाव से रहित हूँ । मेरी रक्षा करना। हे देव ! हे हरे ! प्रसाद रूप में मेरे स्वामी को मुजे दे दो अर्थात् मेरे पति की रक्षा करो । ,” । तब श्री कृष्ण ने कहा की तुम अपने पूरे बंधु-बंधवों के साथ इस यमुना नदी को छोड़ कर कहीं और चले जाओ । इसके बाद कालिया नाग ने कृष्ण को प्रणाम कर यमुना नदी को छोड़ कर कहीं और चला गया। इधर कृष्ण भी अपनी गेंद लेकर यमुना नदी से बाहर आ गये। इधर कंस को जब कोई उपाय नहीं सूझा तब उसने अक्रूर को बुला कर कहा कि नंदगाँव जाकर कृष्ण और बलराम को मथुरा बुला लाओ ।मथुरा आने पर कंस के पहलवान चाणुर और मुष्टिक के साथ जनार्दन के मल्ल युद्ध की घोषणा की। अखाड़े के द्वार पर हीं कंस ने कुवलय नामक हाथी को रख छोड़ा था जिससे कृष्ण उस हाथी के द्वारा कुचला जाये । लेकिन श्री कृष्ण ने उस हाथी को भी मार डाला । उसके बाद श्री कृष्ण ने चाणुर के गले में अपना पैर फंसा कर युद्ध में उसे मार डाला और बलदेव ने मुष्टिक को मार गिराया। तदनन्तर कंस के भाई केशी को भी केशव ने मार डाला ।बलदेव जी ने मूसल तथा हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से दैत्यों को माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मारकर भूमिशायी बना दिया।श्री कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट कंस ! उठो, मैं इसी स्थल पर तुम्हें मारकर इस पृथ्वी को तुम्हारे भार से मुक्त करूंगा।यों कहते हुए क्र्ष्ण मे बड़े क्रोधावेश मे कंस के बालों को पकड़ा और घुमाकर पृथ्वी पर पटकदिया जिससे वह मार गया। कंस के मरने पर देवताओं ने आकाश से कृष्ण और बलदेव पर पुष्प की वर्षा की और अपने अपने शंख बजाये। इससे संसार के सब प्राणी बड़े प्रसन्न हुए । कृष्ण ने माता देवकी और वासुदेव को कारागृह से मुक्त कराया तथा उग्रसेन को मथुरा की गद्दी सौंप दी। । ॥ बोलो श्री कृष्ण भगवान की जय ॥